पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३४

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प्रागैतिहासिक खोज ३०५ इस प्रकार हमने देख लिया कि आर्यों की पूर्वी शाखा से संस्कृत और ईरानी का संबंध है और पश्चिमी शाखा से आरमीनियन, यूनानी आर्यों की भाषाएं आलवैनियन, इटैलियन, केल्टिक, जर्मन, स्लेहानिक और तुखारियन भाषाओं का संबंध है। इनमें से तुखारियन भाषा का पता इस शताब्दी के प्रारंभ (१९०३-०५) में लगा है। महाभारत में भी तुखार जाति का उल्लेख है और यूनानियों के प्राचीन ग्रंथों में भी उसका वर्णन मिलता है। प्राचीन आर्यों की भाषा का वास्तविक रूप क्या था, इसका पता लगाना बहुत कठिन है । उस प्राचीन भाषा की कोई पुस्तक या लेख आदि नहीं मिलते । आर्य जाति की सबसे प्राचीन पुस्तक जो इस समय प्राप्त है, ऋग्वेद है। इसकी ऋचाओं की रचना भिन्न भिन्न समयों और भिन्न भिन्न स्थानों में हुई है। ध्यानपूर्वक देखने पर मंत्रों की भाषा में विभेद देख पड़ता है। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन समय में जब आर्य सप्तसिंधु प्रदेश में थे, तभी उनकी बोलचाल की भाषा ने कुछ कुछ साहित्यिक रूप धारण कर लिया था, पर तो भी उसके अनेक भेद बने रहे। वेदों के संपादन-काल में मंत्रों का भाषा- विभेद बहुत कुछ दूर किया गया। तिस पर भी यह स्पष्ट है कि वेदों की भाषा पर उस समय की कुछ प्रांतीय अथवा देशभाषाओं का पूरा पूरा प्रभाव पड़ा था। ज्यों ज्यों आर्यगण अपने आदिम स्थान से फैलने लगे और तत्कालीन अनार्यों से संपर्क बढ़ाने लगे, त्यो त्यों भाषा भी विशुद्ध न रह कर मिश्रित होने लगी। विभिन्न स्थानों के आर्य विभिन्न प्रकार के प्रयोग काम में लाते थे। कोई 'क्षुद्रक' कहता था तो कोई 'क्षुल्लक' । युवं, युवा और वां तीनों प्रकार के प्रयोग होते थे। एक 'ड' भिन्न भिन्न स्थानों में ल, ळ, 6, ळह सभी बोला जाता था। "इस प्रकार जव विषमता उत्पन्न हुई और एक स्थल के आर्यों को अन्य स्थल के अधिवासी अपने ही सजातियो की बोली समझने में कठिनाई होने लगी तब उन लोगों ने अपनी भाषा में व्यवस्था करने का उद्योग किया। प्रांतीयता का मोह छोड़ कर सार्वदेशिक सर्ववोध्य और अधिक प्रचलित फा०२०