पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०६ भाषा-विज्ञान शब्द टकसाली माने गए। भाषा प्रादेशिक से राष्ट्रीय बन गई। अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग बंद हुआ। कम से कम साहित्यिक और सार्वजनिक व्यवहारों में सभी लोग टकसाली भाषा का प्रयोग करने लगे। इसलिये भाषा भी मँज सँवर कर संस्कृत ( शुद्ध) हो गई। सुंदर, व्यापक और सर्वगम्य होने के कारण साहित्य-रचना इसी में होने लगी एवं उसका तात्कालिक रूप आदर्श मानकर व्यवस्था अक्षुण्ण रखने के लिये पाणिनि आदि वैयाकरणों ने नियम बनाए । वेदों की भाषा कुछ कुछ व्यवस्थित होने पर भी उतनी स्थिर और अपरि- वर्तनशील न थी जितनी उसकी कन्या संस्कृत बन गई। वैयाकरणों ने नियमो से जकड़कर संस्कृत को अमर तो बना दिया पर वह अमरता उसके लिये भार हो गई । उसका प्रवाह रुक गया और साधारण बोल- चाल की भाषा न रह जाने के कारण वह केवल साहित्य और धर्मग्रंथों की भापा हो गई । इधर बोलचाल की भाषा का प्रवाह स्वच्छंद गति से चलता रहा । अनार्यों के संपर्क का सहारा पाकर प्रांतीय बोलियों का विकास हुआ। इन प्रांतीय बोलियों में स्वच्छंदता बहुत थी। वैदिक भाषा के समान ही वे भी स्थिर और अपरिवर्तनशील न थीं । अतएव अपनी प्रकृत स्वच्छंदता के कारण ही वे प्राकृत कहलाई। इस वात की पुष्टि में बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं कि प्राचीन वैदिक भापा से ही प्राकृतों की उत्पत्ति हुई है, अर्वाचीन संस्कृत से नहीं। जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, आरंभ से ही जनसाधारण की बोलचाल की भापा प्राकृत थी। बोलचाल की भाषा के प्राचीन रूप के ही आधार पर वेद मंत्रों की रचना हुई थी और उसका प्रचार ब्राह्मण ग्रंथों तथा सूत्र-ग्रंथों तक में रहा। पीछे से वह परिमार्जित होकर संस्कृत रूप में प्रयुक्त होने लगी। बोलचाल की भापा का अस्तित्व नष्ट नहीं हुआ । वह भी बनी रही। पर इस समय के प्राचीनतम उदाहरण उपलब्ध नहीं हैं। उसका सबसे प्राचीन रूप जो हमें इस ममय प्राप्त है, वह अशोक के लेखों तथा प्राचीन बौद्ध और जैन-ग्रंथों में है । टमी को हम प्राकृत का प्रथम रूप मानने के लिये बाध्य होते