पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३८

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प्रागैतिहासिक खोज ३०९ मान लिया गया कि इस सिद्धांत के ठीक होने में कोई संदेह नहीं है । पर एक बात यहाँ ध्यान में रख लेना आवश्यक है। पुरातत्त्व प्राप्त पदार्थों के आधार पर अपने सिद्धांत स्थिर करता है; अतएव वह भौतिक सभ्यता के जानने में तो हमारा सहायक हो सकता है, पर उस आदिम जाति को मानसिक उन्नति या विकास के जानने में किसी प्रकार की सहायता नहीं दे सकता। यहाँ भाषा विज्ञान ही हमारा एक मात्र सहायक है और उसी की कृपा से हम इसका इतिहास उपस्थित करने में समर्थ होते हैं। इन आधारों पर हम आदिम आर्य जाति के इतिहास को निम्न- लिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं--(१) गार्हस्थ्य और सामाजिक जीवन, (२) वास, (३) पेय पदार्थ, (४) व्यवसाय और व्यापार, (५) समय का विभाग, (६) वंश, (७) जाति और (८) दंड-विधान तथा धर्म । पालतू पशुओं में गधे, खचर और बिल्ली को छोड़ कर उक्ष, गो, शूकर, अवि और अश्व के लिये प्राय: समान शब्द मिलते हैं। अतएव यह अनुमान किया जा सकता है कि इन पशुओं गार्हस्थ्य और सामा- को आर्य लोग पालते थे। संस्कृत के गवेषण जिक जीवन और गविष्टि शब्दो से, जिनका अर्थ वेदों में संपत्ति की खोज लिया जाता है, यह अनुमान किया जा सकता है कि इन पशुओं को आर्य लोग संपत्ति समझते थे और उनकी वंश-वृद्धि की ओर ध्यान देते थे। प्राचीन समय में यौतुक और दक्षिणा भी गौ में दी जाती थी। उस समय आजीविका का मूल पशु या उनसे उत्पन्न पदार्थ ही थे। गवाशिर और गव्य शब्द यह भाव प्रदर्शित करते हैं कि दूध या दूध से बने हुए पदार्थ भोजन के लिये काम में लाए जाते थे। मांस और मज्जा के समवाची शब्द भी यह बतलाते हैं कि ये पदार्थ भी काम में आते थे। पच, चरु, उखा आदि शब्द भोजन के पकाने आदि के सूचक हैं। सारांश यह कि प्राचीन आर्य पशुओं का पालन करते थे उनसे उत्पन्न पदार्थों का उपयोग करते थे। उनके चमड़े और ऊन से अपना शरीर ढकते थे और भोजन पकाना जानते थे। खेती के लिये