पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४७

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३१८ भाषा-विज्ञान संध्यक्षर उन असवर्ण स्वरों के समूह को कहते हैं जिनका उच्चारण श्वास के एक हो वेग में होता है अर्थात् जिनका उच्चारण एक अक्षर- वत् होता है। संध्यक्षर के उच्चारण में मुखावयव एक स्वर के उच्चारण-स्थान से दूसरे स्वर के उच्चारण-स्थान की ओर बड़ी शीनता से जाते हैं जिससे साँस के एक ही झोंके में संध्यभर अथवा ध्वनि का उच्चारण होता है और अवयवों में संयुक्त स्वर परिवर्तन स्पष्ट लक्षित नहीं होता। क्योंकि इस परिवर्तन-काल में ही तो ध्वनि स्पष्ट होती है। अत: संध्यक्षर अथवा संयुक्त स्वर एक अक्षर हो जाता है; उसे ध्वनि-समूह अथवा अक्षर-समूह मानना ठीक नहीं। पर व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो कई स्वर निकट आने से इतने शीन उच्चरित होते हैं कि वे संध्यनर से प्रतीत होते हैं । इससे कुछ विद्वान् अनेक स्वरों के संयुक्त रूपों को भी संध्यक्षर मानते हैं। हिंदी में सच्चे संध्यनर दो ही हैं और उन्हीं के लिये लिपि-चिह्न भी प्रचलित है । (१) ऐ हस्त्र श्र और हस्व ए. की संधि से बना है; उदा०-ऐसा कैसा, पैर । और (२) श्री हस्त्र थ और हस्य श्री की संधि से बना है; उदा.--औरत, बौनी, कौड़ी, सौ। इन्हीं दोनों में, श्रो का उच्चारण कई बोलियों में अइ, अउ के समान भी होता है। जैसे-पैसा और मौसी, पइसा और मउसी के समान उच्चरित होते हैं। यदि दो अथवा अनेक वरों के संयोग की संध्यक्षर मान लें तो भया, को श्रा, पानी, बोए श्रादि में अइया, उपा, श्रायो, 'ऑप. प्रादि संध्यज्ञर माने जा सकते है। इन तीन अथवा दो अनागे का शीम उचारण मुम्बद्वार की एक अवस्था से दूसरी "अवस्था में परिवर्तित होते समय किया जाता है. इसी से इन्हें लोग मयता मानत है । उनके अतिरिक्त प्रत, अवधी यादि बोलियों में अनेक कार-सम पाए जाते है जो मध्यवर जमे इच्चग्नि छान है। उदा.- (7.) अटमी, गर और (अवधी) हा हार श्रादि ।