पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३४८

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स्वर और व्यंजन ३१९ व्यंजन (१) यह अल्पप्राण श्वास, अधोष, जिह्वामूलीय, स्पर्श व्यंजन है। इसका स्थान जीम तथा तालु दोनों की दृष्टि से सबसे पीछे है । इसका उच्चारण जिह्वामूल और कौए के स्पर्श से होता है। वास्तव में यह ध्वनि विदेशी है और अरवी स्पर्श व्यंजन फारसी के तत्सम शब्दो में ही पाई जाती है। प्राचीन साहित्य में तथा साधारण हिंदी में क के स्थान पर क हो जाता है। उदा०—काबिल, मुक्काम, ताक । (२) क-यह अल्पप्राण, अघोष, कंध्य स्वर्श है। इसके उच्चारण में जीभ का पिछला भाग अर्थात् जिह्वामध्य कोमल तालु को छूता है। ऐसा अनुमान होता है कि प्रा० भा० प्रा० काल में कवर्ग का उचारण और भी पीछे होता था क्योंकि कवर्ग 'जिह्वामूलीय' माना जाता था। पीछे कंव्य हो गया । कंठ्य का अर्थ गले में उत्पन्न (guttural) नहीं लिया जाता। हम पहले ही लिख चुके हैं कि कंठ कोमल तालु का पर्याय है, अत: कठ्य का अर्थ है 'कोमल-तालव्य' । उदा०~-कम, चकिया, एक । (३) ख-यह महाप्रारण, अघोष, कंठ्य स्पर्श है। क और ख में केवल यही भेद है कि ख महाप्राण है । उदा०-खेत, भिखारी, सुख । (४)ग-अल्पप्राण, घोष, कंठ्य स्पर्श है। उदा०ामला, गागर, नाग! (५) -महाप्राण, धोप, कंठ्य-स्पर्श है। उदा०-घर, रिघाना, बधारना, करपा । (६) ट-अल्पप्राण, अयोप, सूर्धन्य, स्पर्श है। मूर्धा से कठोर वाल का सबसे पिछला माग समझा जाता है पर आज समस्त स्वर्गी ध्वनियाँ कठोर तालु के मध्यभाग में उलटी जीभ के नोक के