पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३५

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१८ भाषा-विज्ञान किए और मूल भारोपीय भापा के स्वरूप की अधिक समीचीन कल्पना की। ध्वनि-विज्ञान का महत्व बढ़ गया। जीवित भाषाओं की संकीण ध्वनियों के अध्ययन से यह विश्वास दूर हो गया कि मूल भारोपीय भाषा सरल रही होगी। सादृश्य के सिद्धांत को प्रधानता दी गई। इस नए दल ने यह सिद्ध किया कि ध्वनि के नियमों में अपवाद नहीं है। संस्कृत की पूर्णता और महत्त्व को कम श्रेय दिया गया। यूनानी भाषा में मूल भाषा के अधिक स्वर विद्यमान बताए गए, पर व्यंजनों के विषय में अभी तक संस्कृत की पूर्णता अखंड और सर्वमान्य है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारोपीय वर्ग की एक नवीन भाषा टोखारियन का पता लगा। आजकल की खोजों में से एक फ्रेंच विद्वान् द्वारा सुमेरियन भाषा का आर्य भाषाओं से संबंध स्थापित किया जाना प्रधान और उल्लेखनीय घटना है। तात्पर्य यह कि आधुनिक भाषा-विज्ञान अभी केवल सौ सवा सौ वर्ष पुराना है। एक प्रकार से यह अभी बन रहा है। फिर भी इधर भाषा-विज्ञान की इसने बहुत उन्नति की है। अभी तक शब्दों के वर्तमान अवस्था रूपों और ध्वनियों का ही विचार होता था परन्तु अव उसके अर्थ और उसकी शक्ति पर भी विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। डेल्ब्रुक और नील ने इस ओर ध्यान दिया । ब्रोल ने अतिशय पर एक प्रबंध लगभग १८९७ ई० में लिखा। अब तक ध्वनि-शिक्षा का अध्ययन केवल पुस्तकों द्वारा ही होता था परंतु अब प्रयोगशालाओं की भी आवश्यकता पड़ने लग गई है। जेस्पर्सन, स्वीट, उलनबैक, टर्नर आदि आधुनिक काल के प्रसिद्ध विद्वान हैं । प्रायः लोगों का ऐसा अनुमान होता है कि यह विज्ञान पश्चिम की उपज है। किन्तु वास्तव तथ्य इसके विपरीत है। पहले हम कह आए हैं कि हमारे यहाँ के महर्षियों और विद्वानों को ही इसके बीजा. रोपण का श्रेय प्राप्त है। उस काल में जो अध्ययन विवेचन आदि हुआ था वह संस्कृत भापा का हुआ था। आधुनिक भारतीय भाषाओं के ऐसे वैज्ञानिक विवेचन की ओर भारतीय विद्वानों का ध्यान अभी