पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३५४

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स्वर और व्यंजन ३२५ (३५) ह-काकल्य, घोष, घर्ष ध्वनि है । इसके उच्चारण में जीभ, तालु अथवा होठों से सहायता नहीं ली जाती । जब हवा फेफड़े में से वेग से निकलती है और मुखद्वार के खुले रहने घर्ष-वर्ण, से काकल के बाहर रगड़ उत्पन्न करती है तब इस ध्वनि का उच्चारण होता है। ह और श्र में मुख के अवयव प्रायः समान रहते हैं पर ह में रगड़ होती है। उदा०-हाथ, कहानी, टोह । ह के विषय में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं। ह' शब्द के आदि और अंत में अघोष उच्चरित होता है; जैसे-हम, होठ, हिंदु और छिह, छह, कह , यह आदि । पर जब ह दो स्वरों के मध्य में आता है तब उसका उच्चारण घोष होता है, जैसे-रहन, सहन । पर जब वह महाप्राण व्यंजनों में सुन पड़ता है तब कभी अघोप और कभी घोष होता है। जैसे-ख, छ,थ आदि में अघोप ह है और घ, झ, ध, ढ, भ, लह, न्ह आदि में घोष है। अघोप ह का ही नाम विसर्ग है। 'ख' जैसे वर्गों में और छि: जैसे शब्दों के अंत में यही अघोप है अथवा विसर्ग सुन पड़ता है। यह सब कल्पना अनुमान और स्थूल पर्यवेक्षण से सर्वथा संगत लगती है पर अभी परीक्षा द्वारा सिद्ध नहीं हो सकी है। कादरी, सक्सेना, चैटर्जी आदि ने कुछ प्रयोग किये हैं पर उनमें भी ऐकमत्य नहीं है। विसर्ग के लिये लिपि-संकेत ह अथवा : है | हिंदी ध्वनिया में इसका प्रयोग कम होता है। वास्तव में यह अघोप विसर्ग ह है पर कुछ लोग इसे पृथक् ध्वनि मानते हैं। (३६) ख-ख जिह्वामूलीय, अघोप, धर्प-ध्वनि है । इसका उचारण जिहमूल और कोमल तालु के पिछले भाग से होता है, पर दोनों अवयवो का पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अत: उस खुले विवर से हवा रगड़ खाकर निकलती है, अत: इसे स्पर्श-व्यंजनों के वर्ग में रखना उचित नहीं माना जाता । यह ध्वनि फारसी-अरवी तत्सम शब्दों में ही पाई जाती है हिंदी बोलियों में स्पर्श ख के समान उच्चरित होती है।