पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३५७

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ग ३२६ भाषा-विज्ञान उदा०-खराब, बुखार और बलख । (३७) ग-इसमें और ख में केवल एक भेद है कि यह घोष है। अर्थात् ग जिह्वामूलीय, घोष, घर्ष-ध्वनि है। यह भी भारतीय ध्वनि नहीं है, केवल फारसी-अरबी तत्सम शब्दो में पाई जाती है। वास्तव में ग और ग में कोई संबंध नहीं है पर बोलचाल में ग के स्थान ही बोला जाता है। उदा०-गरीब, चोगा, दाग। (३८) श–यह अघोष, घर्ष, तालव्य ध्वनि है । इसके उच्चारण में जीभ की नोक कठोर ताल के बहुत पास पहुँच जाती है पर पूरा स्पर्श नहीं होता, अत: तालु और जीभ के बीच में से हवा रगड़ खाती हुई विना रुके आगे निकल जाती है। इसी से यह ध्वनि घर्प तथा अनव- रुद्ध कही जाती है । इसमें 'शी', 'शी', के समान ऊष्मा निकलता है इससे इसे ऊष्म ध्वनि भी कहते हैं । यह ध्वनि प्राचीन है। साथ ही यह अँगरेजी, फारसी, अरबी आदि से आये हुए विदेशी शब्दों में भी पाई जाती है । पर हिंदी की बोलियों में श का दंत्य (स) उच्चारण होता है। उदा०-शांति, पशु, यश; शायद, शाम, शेयर, शेड । (३९) स-वयं, वर्ष, अघोष ध्वनि है । इसके उच्चारण में जीभ की नोक और वर्क्स के बीच घर्षण ( रगड़ ) होता है। उदा०–सेवक, असगुन, कपास । (४०) ज–ज़ और स का उच्चारण-स्थान एक ही है। ज़ भी वय, घर्प-ध्वनि है किंतु यह घोष है। अत: ज़ का संबंध स से है; ज से नहीं । ज भी विदेशी ध्वनि है और फारसी-अरबी तत्सम शब्दों में ही बोली जाती है। हिंदी वोलियों में ज का ज हो जाता है। उदा-जुल्म, गुजर, बाज । (४१) फदेतोष्ठ्य, वर्ष, अघोष व्यंजन है। इसके उच्चारण में नीचे का होठ ऊपर के दाँतों से लग जाता है पर होठ और दाँत दोनों के बीच में से हवा रगड़ के साथ निकलती रहती है। इसको द्वथोष्टय