पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३५८

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स्वर और व्यंजन ३२७ फ का रूपांतर मानना शास्त्रीय दृष्टि में ठीक नहीं है। वास्तव में फ विदेशी ध्वनि है और विदेशी तत्सम शब्दों में ही पाई जाती है। हिंदी बोलियों में इसका स्थान फ ले लेता है। उदा०--फरल, कपन, साफ । (४२) व–उच्चारण फ के समान होता है। परंतु यह घोप है। अर्थात् दंतोष्ठ्य घोष घर्प-ध्वनि है। यह प्राचीन ध्वनि है और विदेशी शब्दों में भी पाई जाती है। उदा०-वन, सुक्न, यादव। य (अथवा इ). यह तालव्य, घोष, अर्द्धस्वर है। इसके उच्चा- रण में जिह्वोपान कठोर तालु की ओर उठता है पर सष्ट घर्षण नहीं होता। जिह्वा का स्थान भी व्यंजन च और अर्द्धस्वर (अंतस्थ). स्वर इ के बीच में रहता है इसी से इसे अंतस्थ अर्थात् व्यंजन और स्वर के बीच की ध्वनि मानते हैं । वास्तव में व्यंजन और स्वर के बीच की ध्वनियाँ हैं घर्ष व्यंजन । जब किसी ध व्यंजन में घपं स्पष्ट नहीं होता तब वह स्वरवत् हो जाता है। ऐसे ही वों को अर्धस्वर अथवा अंतस्थ कहते हैं। य इसी प्रकार का अर्धस्वर है। उदा०—कन्या, प्यास, ह्याँ, यम, धाथ, पाये। य का उच्चारण एअ सा होता है और कुछ कठिन होता है, इसी से हिंदी बोलियों में य के स्थान में ज हो जाता है। जैसे-यमुना- जमुना, यम--जम। (४३) व-आँ'अ से बहुत कुछ मिलता है। यह बपे व का ही अवर्ष रूप है। यह ध्वनि प्राचीन है। संस्कृत तत्सम और हिंदी तद्भव दोनों प्रकार के शब्दों में पाई जाती है। उदा०-क्वार, स्वाद, स्वर, अध्वर्यु आदि।