पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३८

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भापा और भाषण समाजप्रिय जीव है, वह सहयोग और विनिमय के विना कभी रह नहीं सकता। उसकी यह प्रवल प्रवृत्ति भाषा के रूप में प्रकट होती है, क्योंकि भापा सामाजिक सहयोग का साधन बन जाती है। पीछे से विकसित होते होते भापा विचार और आत्माभिव्यक्ति का भी साधन बन जाती है। अतः यह कभी न भूलना चाहिए कि भाषा एक सामाजिक वस्तु है। भाषा का शरीर प्रधानत: उन व्यक्त ध्वनियों से बना है जिन्हें 'वर्ण' कहते हैं, पर उनके कुछ सहायक अंग भी होते हैं। आँख और हाथ के इशारे अपढ़ और जङ्गली लोगों में तो • भाषा के अंग पाए ही जाते हैं, हम लोग भी आवश्यकतानुसार इन संकेतों से काम लेते हैं। किसी अन्य भाषाभाषी से मिलने पर प्राय: अपने अपूर्ण उच्चारण अथवा अपूर्ण शब्द-भांडार की पूर्ति करने के लिये हमें संकेतों का प्रयोग करना पड़ता है। वहरे और गूंगे से संलाप करने में उनकी संकेतमय भाषा का ज्ञान आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार मुख-विकृति भी भाषा का दूसरा अंग मानी जा सकती है। गर्व, घृणा, क्रोध, लज्जा आदि के भावों के प्रकाशन में मुख-विकृति का वड़ा सहयोग रहता है। एक क्रोधपूर्ण वाक्य के साथ ही बेक्ता की आँखों में भी क्रोध देख पड़ना साधारण बात है। वातचीत से मुख की विकृति अथवा भाव-भंगी का इतना घनिष्ठ संबंध होता है कि अंध- कार में भी हम किसी के शब्दों को सुनकर उसके मुख की भाव-भंगी की कल्पना कर लेते हैं। ऐसी अवस्था में प्रायः कहने का ढंग अर्थात् + आवाज ( tone of voice) हमारी सहायता करती है। विना देखे भी हम दूसरे की 'कड़ी आवाज', 'मरी आज' अथवा 'भर्राए' और 'टूटे स्तर से उसके वाक्यों का भिन्न भिन्न अर्थ लगाया करते हैं। इसी आवाज (tone) अथवा स्वर-विकार भी भापा का एक अंग माना जाता है। इसे वाक्य-स्वर भी कह सकते हैं। इसी प्रकार स्वर (अर्थात् गीतात्मक स्वराघात ), बल प्रयोग और उच्चारण का वेग (अर्थात् प्रवाह ) भी भाषा के विशेष अंग होते हैं; जोर . लहजा, .