पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३९

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२२ भाषा-विज्ञान से पढ़ने में इनका महत्त्व स्पष्ट देख पड़ता है। यदि हम लेखक के भाव का सच्चा अर्थ समझना चाहते हैं तो हमें प्रत्येक वाक्य के लहजे और प्रवाह का तथा प्रत्येक शब्द और अक्षर के स्वर और बल का अनुमान करना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि कोई वर्ण-माला इतनी पूर्ण नहीं हो सकती कि वह इन बातों को भी प्रकट कर सके। इंगित, भुखविकृति, स्वर-विकार (अथवा लहजा), स्वर, बल और प्रवाह ( वेग)-भापा के ये गौण अंग जङ्गली और असभ्य जातियों की भाषाओं में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं । इसमें भी संदेह नहीं है कि सभ्य और संस्कृत भाषाओं की आदिम अवस्था में उनका प्राधान्य रहा होगा। ज्यों ज्यों भाषा अधिक उन्नत और विकसित अर्थात् विचारों और भावों के वहन करने योग्य होती जाती है त्यों त्यों इन गौण अंगों की मात्रा कम होती जाती है । हिंदी जनता में 'भाषा' शब्द का कई भिन्न भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है-भाषा सामान्य, राष्ट्रीय भाषा, प्रांतीय भापा, स्थानीय भाषा, साहित्यिक भाषा, लिखित भाषा आदि। सभी के लिये विशेषण-रहित भाषा का प्रयोग होता है। भाषण की क्रिया के लिये भी भाषा का ही व्यवहार होता है । अतः इन अर्थों को संक्षेप में समझकर शास्त्रीय विवेचन के लिये उनका पृथक् पृथक नाम रख लेना चाहिए। आगे चलकर हम देखेंगे कि समस्त संसार की भाषाओं का कुछ परिवारों से विभाग किया गया है। एक एक परिवार में कुछ भायावर्ग बोली, विभाषा और भाषा होते हैं। एक एक वर्ग में अनेक सजातीय भापाएँ होती हैं। एक एक भाषा की अनेक विभाषाएँ होती हैं। एक विभापा की अनेक बोलियाँ होती हैं। यहाँ हमें भाषा, विभापा और बोली से ही काम है, क्योंकि इन तीनों के लिये कभी कभी हिंदी में 'भाषा' का प्रयोग देख पड़ता है। 'बोली' से हमारा अभिप्राय स्थानीय और घरू बोली से है, जो तनिक भी साहित्यिक नहीं होती और वोलनेवालों के मुख में ही रहती है। इसे आजकल लोग 'पेटवा' (Patois) कहकर पुकारते हैं । विभाषा