पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४

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0 पृष्ठों में समाप्त हुआ है। यही बात साहित्यालोचन के संबंध में भी हुई थी । अतएव मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि आरंभ में मैं यह ठीक ठीक अनुमान नहीं कर सकता था कि किस प्रकार के ग्रंथ के लिए कितने विस्तार की आवश्यकता होगी। अतएव भविष्य में यदि किसी और अंथ के लिखने का मुझे आयोजन करना पड़ा तो अनुमान के इस दांव-पेंच से बचने की चेष्टा करूँगा। इस ग्रंथ में कई बातें कई बार कही गई हैं। यह बहुत कुछ जान- बूझकर किया गया है। भाषा-विज्ञान का विषय सरल नहीं है । वह बहुत उलझन डालनेवाला है। अतएव स्थान स्थान पर आवश्यकतानुसार बातों के दोहराने में मैंने संकोच नहीं किया है; क्योंकि मैं विषय को यथासंभव सरल बनाना चाहता था, जिसमें पढ़नेवालों का जी न जबे और उन्हें हृदयं- गम करने में कठिनता न हो। यदि इस कारण से समालोचकों की दृष्टि में पुनरुक्ति-दोष आ गया हो, तो उसके लिये मुझे पश्चात्ताप नहीं है । जो बात जान-बूझकर किसी विशेष उद्देश्य से की जाय, उसके लिये पश्चात्ताप होना तो दूर रहा, कुछ भागा-पीछा भी होना अस्वाभाविक है। निदान यह ग्रंथ समाप्त हो गया और अब हिंदी के विद्वानों, विशेषकर भाषा-विज्ञान वेत्ताओं की सेवा में उपस्थित है। यदि इस ग्रंथ से विश्वविद्या- लयों की उच्च कक्षा के हिंदी पढ़नेवाले विद्यार्थियों का कुछ भी उपकार हो तो मैं अपना परिश्रम सफल मममूंगा और इस पुस्तक के प्रस्तुत करने में जो कुछ शारीरिक कष्ट मुझे उठाना पड़ा है, उसे भूल जाऊँगा । इस ग्रंथ के दसवें प्रकरण के संबंध में पंडित रामचंद्र शुक्ल ने कई श्रावश्यक परामर्श देने की कृपा की है। साथ ही बाद धीरेंद्र वर्मा ने इसकी विषयानुक्रमणिका तैयार करने का कष्ट उठाया है। बाबू रामचंद्र वर्मा ने इस पुस्तक की तैयारी में जो उत्साह दिखाया है और मेरी सहायता की है, वह विशेष उल्लेख-योग्य है। इसलिए इन महाशयों को मैं हृदय से धन्यवाद सका, देता हूँ! श्रीरामनवमी सं० १९८१ वि० } श्यामसुंदरदास