पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४१

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w भापा-विज्ञान आगे से हटा दिया जाता है तब हम भाषा से सामान्य भाषा अर्थात् ध्वनि-संकेतों के समूह का अर्थ लेते हैं । इस अर्थ के भी दो पक्ष हैं जिन्हें और स्पष्ट करने के लिये हम 'भाषा' और 'भापण' इन दो शब्दों का प्रयोग करते हैं। भाषा का एक वह रूप है जो परंपरा से चनता चला आ रहा है, जो शब्दों का एक बड़ा भांडार है; भाषा का दूसरा रूप व्यक्तियों द्वारा उसका व्यवहार अर्थात् भापण है । पहला रूप सिद्धांत माना जा सकता है, स्थायी कहा जा सकता है और दूसरा उसका प्रयोग अथवा क्रिया कहा जा सकता है, जो क्षण क्षण, प्रत्येक वक्ता और श्रोता के मुख में परिवर्तित होता रहता है। एक का घर- माक्थव शब्द होता है, दूसरे का वाक्य । एक को विद्वान् 'विद्या' कहते हैं, दूसरे को 'कला' । यद्यपि इन दोनों रूपों का ऐसा संबंध है जो प्राय: दोनों में अभेद्य माना जाता है, तथापि शास्त्रीय विचार के लिये इनका भेद करना आवश्यक है। भाषा-वैज्ञानिक की वृष्टि में भाषण का अध्ययन अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । यद्यपि यह प्रश्न कठिन है कि भाषा से भाषण की उत्पत्ति हुई अथवा भाषण से भाषा की तथापि सामान्यतया भापण ही भाषा का मूल माना जाता है। ठेठ हिंदी में 'बानी' और 'बोल' का भी प्रयोग होता है, जैसे संतों की बानी और चोरों की बोल | ये विशेष प्रकार की भाषाएँ ही हैं, क्योंकि विभाषा और बोली में इनकी गणना नहीं हो सकती। बानी और बोल का कारण भी एक विशेष प्रकार की संस्कृति ही होती है। इसे अँगरेजी में स्लैंग कहते हैं। कई विद्वान् 'स्लैंग' का इतना व्यापक अर्थ लेते हैं कि वे काव्य भाषा को भी स्लैंग' अथवा कविवाणी ही कहते हैं, क्योंकि कवियों की भाषा प्रायः राष्ट्रीय और टकसाली नहीं होती । अनेक कवि विल्कुल चलती भाषा में भी रचना करते हैं, तो भी हमें साहित्यिक काव्य-मापा और टकसाली भाषा को सदा पर्याय न समझना चाहिए। यदि हम अपनी भाषण-क्रिया पर विचार करें तो उसके दो आधार