पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४२

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भाषा और भापण २७ 1 स्पष्ट देख पड़ते हैं हैं- व्यक्त ध्वनियाँ और उनके द्वारा अभिव्यक्त होने- वाले विचार और भाव । इस प्रकार भापण भाषण का द्विविध प्राधार का एक भौतिक आधार होता है, दूसरा मान- सिक ! मानसिक क्रिया ही शब्दों और वाक्यों के रूप में प्रकट होती । मानसिक क्रिया वास्तव में भाषा का प्राण है और ध्वनि उसका बाह्य शरीर ! इसी से आधुनिक भाषा-वैज्ञानिक अब अर्थ विचार (अथवा अातिशय) के अंतर्गत जो सादृश्य और विरोध आदि हैं उनके मनोवैज्ञानिक अध्ययन की ओर विशेष ध्यान देते हैं। भाषा का अंत्यावयव शब्द होता है। शब्द का विवेचन तीन प्रकार से किया जाता है। शब्द को कभी ध्वनि-मात्र, कभी अर्थ-मात्र और कभी रूप-मात्र मानकर अध्ययन किया जाता है। ध्वनि-समूह शब्द के उच्चारण से संबंध रखता है। अंतिम अक्षरों का विशिष्ट उचरित होना ही धन्यात्मक शब्द का काम है। अर्थ-समूह शब्द के अर्थ और भाव का विषय होता है। दो अर्थों के संबंध को प्रकट करनेवाला रूप-समूह भाषा की रूप-रचना की सामग्री उपस्थित करता है। भापा का अध्ययन इन्हीं तीन विशेष पद्धतियों से किया जाता है। 'भाषा' भापण की क्रिया के समान क्षणिक और अनित्य नहीं होती। वह एक परंपरागत वस्तु है। उसकी एक धारा बहती है जो सतत परिवर्तनशील होने पर भी स्थायी और नित्य भाषा परंपरागत होती है। उसमें भापण-कृत भेदों की लहरें नित्य उठा करती हैं। थोड़े से ही विचार से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा के ध्वनि-संकेत संसर्ग की कृति हैं। किसी वस्तु के लिये किसी ध्वनि-संकेत का प्रयोग अर्थात् एक अर्थ से एक शब्द का संबंध सर्वदा आकस्मिक होता है। धीरे-धीरे संसर्ग और अनुकरण के कारण वक्ता और श्रोता उस संबंध को स्वाभाविक समझने लगते हैं । वक्ता सदा विचार कर और बुद्धि की कसौटी पर कसकर शब्द नहीं गढ़ता और यदि वह ऐसा करता है संपत्ति है।