पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४४

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1 भाषा और भाषण ३१ कुछ साहसी विद्वानों ने एक दूसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि भाषा मनुष्य की सांकेतिक संस्था है। आदि काल में जब मनुष्यों ने हस्तादि के साधारण संकेतों से काम चलता न सांकेतिक उत्पत्ति देखा तो उन्होंने कुछ धनि-संकेतों को जन्म दिया। वे ही ध्वनि-संकेत विकसित होते होते आज इस रूप में देख पड़ते हैं। इस मत में तथ्य इतना ही है कि शब्द और अर्थ का संबंध लोकेच्छा का शासन मानता है और शब्दमय भाषा का उद्भव मनुष्यों की उत्पत्ति के कुछ समय उपरांत होता है, पर यह कल्पना करना कि मनुष्यों ने विना भाषा-ज्ञान के ही इकट्ठे होकर अपनी अवस्था पर विचार किया और कुछ संकेत स्थिर किये, सर्वथा हास्यास्पद प्रतीत होता है । यदि परस्पर विचार-विनिमय विना भापा के ही हो सकता था तो भाषा के उत्पादन की आवश्य- कता ही क्या थी? इन दोनों मतों का खंडन करके विद्वानों ने भाषा की उत्पत्ति के विषय में इतने भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन किया है कि अनेक भाषा- वैज्ञानिक इस प्रश्न को छेड़ना मूर्खता अथवा अनुकरणमूलकतावाद मनोरंजन समझने लगे हैं। उनमें से चार मुख्य सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय देकर हम देखेंगे कि प्रकार उन सभी का खंडन करके केवल दो मत विजय प्राप्त कर रहे हैं। पहले के चार मतों में से पहला सिद्धांत यह है कि मनुष्य के प्रारं- भिक शब्द अनुकरणात्मक थे। मनुष्य पशु-पक्षियों की बोली सुनकर उसी के अनुकरण पर एक नया शब्द बना लेता था। जैसे एक पक्षी 'काका' रटता था। उसकी ध्वनि के अनुकरण पर 'काक' शब्द की रचना हुई। भ्याउँ, कोयल, कोकिल, कूक, घुग्घू आदि शब्दों की भी इसी प्रकार उत्पत्ति हो गई। हिनहिनाना, भौं भौं करना, पिपियाना आदि क्रियाओं की भी इसी प्रकार उत्पत्ति हो गई और धीरे धीरे भाषा बढ़ चली । इस मत के माननेवाले, पशुओं-पक्षियों और अन्य निर्जीव पदार्थों की ध्वनियों का अनुकरण भाषा का कारण मानते हैं, पर यह