पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४५

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तावाद ३२ भाषा-विज्ञान भूल जाते हैं, कि मनुष्य अपने सहधर्मियों और साथियों की ध्वनियों का भी अनुकरण करता होगा। दूसरा प्रसिद्ध वाद 'मनोभावाभिव्यंजकता' है। इसके अनुसार भाषा उन विस्मयादि मनोभाओं के बोधक शब्दों से प्रारंभ होती है जो मनुष्य के मुख से सहज संस्कारवश ही निकल पड़ते हैं। इसके माननेवाले विद्वान् प्राय: यह जानने का उद्योग नहीं करते कि ये विस्मयादिबोधक शब्द कैसे उत्पन्न हुए; उन्हें वे मनोभावाभि-व्यंजक- स्वयंभू अर्थात् श्राप से आप उत्पन्न मानकर आगे आगे भाषा का विकास देखने का प्रयत्न करते हैं। डारविन अपने इक्स्प्रेशन आफ इमोशंस ( The expression of Emotionl ) में इन विस्मयादिबोधकों के कुछ शारीरिक ( Physiological ) कारण बतलाते हैं। जैसे घृणा अथवा उद्वेग के समय मनुष्य 'पूह' या पिश' कह बैठता है, अथवा अद्भुत दृश्य देखने पर दर्शकमंडली के मुख से 'श्रोह' निकल पड़ता है। इस सिद्धांत पर पहली आपत्ति तो यही होती है कि विस्मयादि. बोधक अथवा मनोभावाभिव्यंजक शब्द वास्तव में भाषा के अंदर नहीं आते; क्याकि इनका व्यवहार तभी होता है जब वक्ता या तो बोल नहीं सकता अथवा बोलना नहीं चाहता । वक्ता के मनोभाव उसकी इन्द्रियों को इतना अभिभूत कर देते हैं कि वह बोल ही नहीं सकता। दूसरी बात यह है कि ये विस्मयादिवोचक भी प्रायः सांकेतिक और परंपरा प्राप्त होते हैं। भिन्न देश या जाति के लोग उन्हीं भावों को भिन्न भिन्न शब्दों से व्यक्त करते हैं। जैसे दु:ख में एक जर्मन व्यक्ति और कहता है, फ्रेंचमैन 'अहि' कहता है, अँगरेज 'ओह' कहता है और एक हिन्दुस्तानी व्यक्ति 'आह' या 'उह' कहकर कराहता है। अर्थात् आज जो विस्मयादिबोधक शब्द उपलब्ध हैं वे सर्वथा स्वाभाविक न होकर प्रायः सांकेतिक हैं। एक तीसरा सिद्धांत यो-हे हो-बाद कहलाता है। जब कोई मनुष्य शारीरिक परिश्रम करता है तो श्वास-प्रश्वास का वेग बढ़