पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा-विज्ञान संकेत लोग बनात नहीं थे पर वे कई कारणों से बन जाते थे। इसी से स्त्रीट ने आदिम भाषा के तीन भेद किए हैं-अनुकरणात्मक, मनो- भावाभिव्यंजक (अथवा विस्मयादिबोधक) और प्रतीकात्मक । पहली श्रेणी में संस्कृत के काक, कोकिल, कुक्कुट, अँगरेजी के Cuckoo, Coc, Buzz, Bang, Pop तथा हिंदी के कौवा, अनुकरणात्मक शब्द कोयल, घुग्घू , भनभन, हिनहिनाना, हे हे करना आदि अनेक शब्द आ जाते हैं। पशु-पक्षियों के नाम प्रायः अव्यक्ता- नुकरण के आधार पर बने थे और आज भी बनते है । यह देखकर कि चीन, मिस्र और भारत की भाषा सजातीय नहीं है तो भी उनमें विल्ली जैसे शब्द के लिये वही 'म्याउ' शब्द प्रयुक्त होता है, मानना पड़ता है कि प्रारंभिक भाषा में अव्यक्तानुकरण-मूलकर शब्द अवश्य रहे होंगे। आदि भाषा का दूसरा भाग मनोभावाभिव्यंजक शब्दों से बना होगा। जो मनुष्य मनुष्येतर प्राणियों और वस्तुओं की अव्यक्त ध्वनि का अनुकरण करता था यह अवश्य ही अपने मनोभावाभिव्यंजक शब्द सहचर मनुष्यों के 'आह', 'वाह' आदि विस्म- यादिवोधकों का अनुकरण और उचित उपयोग भी करता होगा। इसी से धिक्कारना, दुरदुराना, वाहवाही, हाय हाय आदि के समान शब्द बने होंगे। आजकल की भाषा बनाने की प्रवृत्ति से हम उस काल का भी अनुमान कर सकते हैं । इसी प्रकार पुरानी अँगरेजी का शत्रुवाचक फेआंड (feond) और आधुनिक अँगरेकी का (१) देखो-स्वीट-कृत हिस्ट्री ग्राफ लैंग्वेज, पृ० ३३-३५ और उसी की न्यू इंगलिश ग्रामर, पृ० १६२ । (२) इन अनुकरण-मूलक शब्दों से एक बात पर बड़ा प्रकाश पड़ता है । पहले के विद्वान् संस्कृत और माथिक के स्वरो को देखकर कहा करते थे कि 'इ' और 'उ' ये ही तीन मूल स्वर है, पर आधुनिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि 'ए' 'नो' भी मूल स्वर थे। यह साधारणीकरण और समीकरण पीछे की वस्तु है । यही बात अनुकरण-मूलक शब्दों को परीक्षा से भी मालूम होती है।