पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/५२

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भाषा और भापण ३९ होने से विश्राम का सुख मिलता है, धीरे धीरे उसी शब्द में अन्य प्रकार के सुखों का भी भाव आ गया । ऐसे औपचारिक तथा लाक्षणिक प्रयोगों के संस्कृत तथा हिंदी जैसी भाषाओं में प्रचुर उदाहरण मिल सकते हैं । इसी से हमें इस बात का आश्चर्य न करना चाहिए कि शब्द-कोप के अधिक शब्न उपयुक्त अनुकरणात्मक आदि तीन भेदों अंतर्गत नहीं आते । इन सब के कलेवर तथा जीवन को उपचार विकसित और परिवर्तित किया करता है। यह तो शब्द-कोप अर्थात् भाषा के भांडार की कथा है, पर उसी के साथ साथ भापण की क्रिया भी विकलित हो रही थी। जब संसर्गज्ञान बढ़ चला तब आदि-मानव उसका वाक्य के रूप भाषण का विकास में भी प्रयोग करने लगे । हमारे कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि पहले शब्द वने तव वाक्यों द्वारा भाषण का प्रारंभ हुआ। पर पहले किसी एक ध्वनि-संकेत का एक अर्थ से संसर्ग हो जाने पर मनुष्य उस शब्द का चाक्य के हो रूप में प्रयोग कर सकते हैं। वह वाक्य आज के वाक्य जैसा शब्दमय पहले भले ही न हो, पर वह अर्थ में वाक्य ही रहता है। बच्चा जव 'गाय' अथवा 'कौआ' कहता है तब वह एक पूरी बात कहता है। अर्थात् "देखो गाय पाई' अथवा 'कौआ बैठा है । वह जव 'दूध' अथवा 'पानी' कहता है, तो उसके इन शन्नों से 'दूध पिलाओ या चाहिए' आदि पूरे वाक्य का अर्थ लिया जाता है। आदि काल के वाक्य भी ऐसे ही शब्द वाक्य अथवा बाक्य शब्द होते थे। कोई मनुष्य अँगुली से दिखलाकर कहता था 'कोकिल' अर्थात् वह कोकिल है अथवा कोकिल गा रही है। धीरे-धीरे शब्दों के विस्तार ने हस्तादि चेष्टाओं का अर्थात इंगित भाषा का लोप कर दिया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आदि काल में शादिक- भापा की पूर्ति पाणि-विहार, अक्षिनिकोच आदि से होती थी। इसके अनंतर जब शब्द-भांडार बढ़ चला तर 'कोकिल गा' अथवा 'कोकिल गाना' जैसे दो शब्दों के द्वारा भूत और वर्तमान आदि सभी का एक वाक्य में अर्थ लिया जाने लगा। धीरे धीरे काल, लिंग आदि का भेद