पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/६१

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समास-प्रधान अथवा भापा-विज्ञान के सभी स्वर स्वतंत्र होते हैं । वे धातु और प्रातिपदिक के समान निर्योग और प्रधान होते हैं। उनमें कभी कोई विकार नहीं होता । व्यास- प्रधान भाषा के वाक्य में स्वतंत्र और शुद्ध प्रकृति का व्यवहार होता है। इन भाषाओं के शब्द प्रायः एकाच होते हैं। उनकी रचना एक अक्षर और एक अथवा अनेक व्यंजनों से होती है। व्यास-प्रधान रचना में वाक्य के सभी शब्द पृथक् पृथक रहते हैं। समास-प्रधान रचना में उसका ठीक उलटा होता है । वाक्य में शब्द एक दूसरे से इतने संश्लिष्ट रहते हैं कि वाक्य और शब्दों में भेद करना कठिन हो जाता है। बहु-संहित व्यास-प्रधान वाक्य में जो अर्थ अनेक शब्दों से निकलता है, उसके लिये सामास-प्रधान वाक्य में एक ही शब्द पर्याप्त हो जाता है। जैसे 'नाधोलिनिन' एक शब्द से 'हम लोगों के लिये नाव लाओ' इतने बड़े वाक्य का अर्थ निकलता है। दोनों अमेरिका की भाषाएँ इसी प्रकार की पूर्णत: समान-प्रधान हैं। कुछ भाषाएँ अंशत: ही समास-प्रधान होती हैं । सच्ची समस्त भाषा के एक ही शब्द में कर्त्ता, क्रिया, कर्म, विशेषण आदि सभी का समाहार रहता है। पर कुछ भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें स्वतंत्र शब्द भी रहते हैं और वाक्य में पृथक व्यवहृत भी होते हैं। तो भी वे समास- प्रधान मानी जाती हैं। क्योंकि उनकी क्रिया अपने कर्त्ता और कर्म के वाचक सर्वनामों का और कभी कभी और शब्दों का भी समाहार कर लेती हैं। यूरोप की वास्क इसका सुंदर उदाहरण है । उसकी एक क्रिया 'दककिंयात्' का अर्थ होता है 'मैं उसे उसके पास ले जाता हूँ।' इसी प्रकार 'नर्कसु' का अर्थ होता है 'तू मूझे ले जाता है। इस प्रकार का श्रांशिक समास प्रत्यय-प्रधान और विभक्ति प्रधान-भाषाओं में भी काम में आता है । जैसे संस्कृत का 'अस्मि' ( मैं हूँ), 'गच्छामि' ( मैं जाता हूँ) अबत्रा गुजराती का 'मकुंजे' ( मैंने कहा कि)। प्रत्यय-प्रधान भाषा में व्याकरणिक संबंध प्रत्ययों के संयोग से सूचित किया जाता है। यद्यपि ये प्रत्यय सर्वांगपूर्ण नहीं होते, तथापि