पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/६६

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भाषाओं का वर्गीकरण उनमें नए तत्वों के आ जाने से नाद-यंत्रों को अवस्था में सदा परिवर्तन होता रहता है। इन कारणों से प्रत्येक बोलनेवाले को भाषा दूसरे वोलनेवालों की भाषा से कुछ न कुछ भिन्न होनी चाहिए। यदि इन प्रवृत्तियों में रुकावटें न उपस्थित हों तो किसी एक मुख्य भाषा की । उतनी ही सजातीय बोलियाँ हो जायें जितनी संख्या उस मुख्य भाषा के बोलनेवालों की होगी । परंतु मनुष्य को सदा इस बात की आवश्यकता बनी रहती है कि वह अपना भाव दूसरों को समझाये और दूसरों का भाव आप समझे । इस आवश्यकता के कारण उसके भाषण की परिवर्तनशील प्रकृति में रुकावटें उपस्थित होती रहती हैं और भाषाओं के उपविभागों की संख्या अपरिमित नहीं होने पाती। अतएव हम कह सकते हैं कि बोली मनुष्यों के एक विशिष्ट समुदाय की भाषा है जिसे उस समुदाय के सब मनुष्य भली भाँति समझते हैं। उसके द्वारा उनमें परस्पर भावों विभेदता में एकता और विचारों का विनिमय हुआ करता है । यद्यपि भाषण में प्रत्येक मनुष्य की कोई न कोई विशेषता होती है, परंतु उन विशेषताओं के कारण प्रत्येक व्यक्ति के भाषण को 'घोली' कहलाने का गौरव नहीं प्राप्त होता। भिन्न भिन्न सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक या व्यापारिक संप्रदायों के लोगों के परस्पर भाषण में मुख्य भाषा से जो विभिन्नता उत्पन्न हो जाती है उसी को बोली कहते हैं। एक ब्राह्मण एकादशी' शब्द का प्रयोग करता है । साधारण जन-समुदाय में भी 'एकादशी' शब्द प्रयुक्त होता है। अपढ़ लोगों में एकादशी' या 'इकासती' शब्द चलता है। इसी प्रकार अष्टमी' का 'असमटी 'असटमी' या 'आ' शब्द प्रयुक्त होते हैं । ये शब्द वास्तव में एक ही हैं, पर भिन्न भिन्न श्रेणी के लोगों में इन्होंने भिन्न भिन्न रूप धारण कर लिया है। संप्रदायभेद के कारण एक ही भाव के बोध के लिये अलग अलग शब्द प्रयुक्त होते हैं । साधा- रण लोग भोजन करना' या 'खाना' शब्द का प्रयोग करते हैं, पर वैष्णन- मंडली में इसी भाव को प्रकट करने के लिये 'प्रसाद पाना' कहा जाता