पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/७९

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आपा-विज्ञान लैटिन में पंपेरिअस होता है वहाँ क-वर्ग की लैटिन में विश्व होता है। राजनीतिक कारणों ले रोम की क-प्रधान विभाषा का प्रसार इतना बढ़ा कि प-वर्ग को भापाओं का लोप ही हो गया, और अब अंनिबन, ओस्कन, सेवाइन आदि का शिलालेखों से ही पता लगता है । इस वर्ग को अंनोसेमनिटिक भी कहते हैं। क-प्रधान अर्थात् प्राचीन लैंटिन के दो विभाग होते हैं. संस्कृत लैटिन और प्राकृत लैटिन । प्राकृत लैटिन के अंतर्गत इटैलियन, सेनिश, पुर्तगाली, रेटोगेनिक, रोमानियन, प्रातल और फ्रेंच भाषाएँ है। इन सब में प्रधान लैटिन ही है। यद्यपि यह ग्रीक भाषा से रूपों और विभक्तियों में बरावरी नहीं कर सकती तो भी उसके प्राचीन संहित रूपों में भारोपीय परिवार के लक्षण स्पष्ट देख पड़ते हैं। इसकी एक विशेषता बज-प्रयोग भी है। लैटिन के जो प्राचीन लेख हैं उनमें भी वल-प्रयोग ही मिलता है और वह उपचा वर्ण पर हो प्रायः रहता है। अन्य भारोपीय भापायों की भाँति लैटिन की भी संहिति से च्यचहिति की ओर प्रवृत्ति हुई है; और सबसे अधिक महत्व की बात लैदिन का इतिहास है। जिस प्रकार लैटिन से इटाली, फ्रेंच आदि अनेक रोमांस भाषाएँ विकसित हुई हैं उसी प्रकार मृल भारोपीय भाषा से भिन्न भिन्न केल्टिक, ग्रीक, लैटिन आदि शाखाएँ निकली होंगी। कई विद्वान् इस लैटिन के इतिहास से भारतीय देश-भाषाओं के विकास-क्रम की तुलना करते हैं। इस प्रकार यह रोमांस भाषाओं का इतिहास भापा-विज्ञान में एक आदर्श हो गया है। परंतु इटली देश की संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से इटाली भाषा का महत्त्व सबसे अधिक है । रोमन साम्राज्य के नष्ट हो जाने पर प्रांतीयता का प्रेम बढ़ गया था। कवि और लेखक प्रायः अपनी विभाषा में ही रचना किया करते थे। इटली के तेरहवीं शताब्दी के महाकवि दाते (Dante) ने अपनी जन्म- इटाली भाषा भूमि फ्लारेंस की विभाषा में ही अपना अमर काय लिखा । इसके पीछे रिनेताँ (जागर्ति) के दिनों में भी इस