पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा-विज्ञान सभी रूपों के स्थान में, आर्य भाषाओं में आकर, केवल 'अ' अथवा 'आ' रह गया है। (२) भारोपीय ? अर्थात् अर्धमात्रिक 'अ' के स्थान में आर्य भाषाओं में । (इ) हो जाता है। इसी प्रकार वैदिक ईमः (भुजा), सं० दीर्घः (लंबा ) आदि का ईकार भी भा०० वर्ण का प्रतिनिधि है। (३) र और ल् (और उन्हीं के समान स्वर ऋ और ल) का आर्य भाषाओं में आकर अभेद हो गया है। रलयोरभेदः । (४) भारोपीय S आर्य भाषाओं में इ, उ, य, व् स् और क वर्णों के पीछे आने पर 'श्' हो जाता है और संस्कृत में उश श् का स्थान 'ए' ले लेता है। (५) इस प्रकार की ध्वनि-संबंधी विशेषताओं के अतिरिक्त ईरानी और भारतीय भाषाओं में कुछ व्याकरणिक विशेषताएँ भी ऐसी हैं जो अन्य वर्ग की भाषाओं में नहीं पाई जाती; जैसे षष्ठी बहुवचन में नाम् विभक्ति अथवा लोट् लकार के एकवचन की 'तु' विभक्ति । इस प्रकार आर्य शाखा के दो प्रधान भेद हैं-ईरानी और भारतीय । ईरान के एक पश्चिमी प्रांत का नाम फारस ( पारसीक देश) है। अत: ईरानी में फारसी के अतिरिक्त आर्य शाखा के भेद प्रागैतिहासिक जेंद भाषा और अन्य आधुनिक तथा उपभेद प्रांतीय विभाषाएँ तथा वोलियाँ भी अंतर्भूत हैं । यद्यपि इन सब ईरानी भाषाओं का शृंखलाबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं है तो भी उनके मुख्य भेदों का विवेचन किया जा सकता है । उसका सबसे प्राचीन रूप पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता की भाषा में मिलता है। ईरानी का दूसरा प्राचीन रूप प्राचीन फारसी कहलाता है। प्राचीनता में ईरान के पश्चिम की यह फारसी भाषा अवेस्ता के ही समकक्ष रखी जा सकती है । इसी प्राचीन फारसी का आगे वंश भी चलता और मध्य युग में उत्ती की संतान मध्य-फारसी का राज्य था और फिर लगभग ९०० ईसत्री पीछे उसी का तीसरा विकसित रूप काम में