पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१०५

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आषा का प्रश्न ऊपर-ऊपर का सुख पका, पर वर का तरजुमः ।


कुल्लियात पृ०८ज

स्पष्ट है कि जनाब अहसन साव ने 'फारसी' को मूल भाषा बना दिया और मूल भाषा संस्कृत को भरपूर उपेक्षा की। इस उपेक्षा अथवा अहिंदी-प्रवृत्ति का इतिहास बहुत ही शिक्षाप्रद तथा रोचक है। उस पर विचार करने का समय नहीं । हाँ, इतना भर जान लीजिए कि एक बार वली औरंगाबाद (दकन) से चलकर दिल्ली पहुँचे। उस समय दिल्ली में फारसी का हास हो रहा था और भाषा बढ़ रही थी। दिल्ली के शाह शाद उल्लाह गुलशन को यह बात खली.1: वली के फारसी तर्जे को तो उन्होंने पसंद किया, पर उसका हिंदीपन उन्हें न रुचा। चट उन्होंने वली से कहा- "ई हमः मज़ामीन फारसी कि वेकार उ.फ्तादह अद दर रेखतः बकार बबर। अज़ तू कि मुहासिवः ख्वाहिद गिरक्तः ।" "यह इतने सारे फारसी के मज़मून जो बेकार पड़े हुए हैं उनको अपने रेखते में इस्तमाल कर । कौन तुझसे जायजः (हिसाब) लेगा।" ( उर्दू रिसाला पृ० १७९ अप्रैल सन् १९३२ ई० ) शाह साहब की बात जादू का काम कर गई। वली फारसी को हिंदी कालिव में ढालने लगे। निदान उनकी शायरी का रंग यह हो गया- १-'कायम' के कथनानुसार वली सन् १११२ हि० (सन् १७०० ई०) में दिल्ली आए और 'हातिम' के कथनानुसार सन् ११३३ हि० (सन् १७२० ई०.) में उनका दीवान पहुँचा ।