पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा का प्रश्न ११२ "नहीं खेल है दाग यारों से कह दो ; कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते।" हाँ, तो सैयद इंशा का फतवा है- "किसी भी बात में इनका कोल-फेल ऐतबार के काबिल नहीं है।" किनका? उन्हीं हिंदुओं का जिनकी यह जवान सावित की जा रही है; और सात समुद्र पार से इसके लिये मसाला जुटाया जा रहा है। खैर, देखते रहिए । समय का फेर है। सैयद इंशा ने मेहरबानी करके इतना बता दिया है कि- "मुस्तनद और सही उर्दू उसी की मानी जायगी जो 'नजीव ( कुलीन) होगा। जिसके मा-बाप दोनों दिल्ली के बाशिंदे हों, उसी का शुमार फसीहों में होगा।" यदि इतनी ही कैद होती तो भी गनीमत थी। बहुत से 'नजीव' निकल आते। पर सैयद इंशा तो साफ साफ कह देते हैं कि उर्दू मुसलमानों की चीज है। सतलव यह कि जो 'ताजः जबान' रची गई उसके धनी हम आप हो नहीं सकते। याद रहे, खुद इंशा भी न हो सके। १२ -दर हेच मकाम कौल व फ़ल ई हा. मनात एतबार नमी तवा- नद शुद्” । ( दरिया-ए-लताफ़त, वही, २---"लेकिन असलश शर्त अस्त कि नजीब बाशद यानी पिदर व मादरश अज़ देहली बाशद दाखिल फुसहाय गश्त (वही, पृ० ६६) ३--"मुहावरा उर्दू इवारत अज़ मायाइये अहल इसलाम अस्त ।" (वही, पृ०१५)