पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१२

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राष्ट्रभाषा की परंपरा अविस्तरमसंदिग्धमविलंबितमव्ययम् । . उरःस्थं कंटगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम् ।। संस्कारक्रमसंपन्नामद्भुतामविलंबिताम् । उच्चारयति कल्याणी वाचं हृदयहर्षिणीम् ।। (कि० कांड २८-३२) तात्पर्य यह कि विजातीय हनूमान् का भाषण शिक्षा, संस्कार, बल, काकु, उच्चारण आदि भाषा के सभी अंगों से परिपुष्ट था। चारधारा उनकी वाणी से प्रवाह के रूप में फूट पड़ती थी। वह सहज, स्वच्छ, निर्मल तथा प्रसन्न थी। प्रयत्न अथवा बनावट की उसमें गंध भी न थी। संक्षेप में वह द्विजाति या शिष्ट भाषा थी। वह शिष्ट भाषा थी जिसका व्यवहार शिष्टाचार तथा वावचीत में भी होता था। पाथियों के अतिरिक्त वार्तालाप में भी उसका प्रचार था । वाल्मीकि की द्विजी या शिष्ट भाषा ने और भी शिष्ट रूप धारण कर लिया। पाणिनि (ईसा के लगभग ४ सौ वर्ष पहले) के प्रयत्न से वह सचमुच संस्कृत हो गई। उनके संस्कार से संस्कृत 'संस्कृता वाक्' की जगह केवल 'संस्कृत' रह गई और विशेषण के बदले संज्ञा के रूप में चल पड़ी। 'मानुषी संस्कृता वाक्' की भी कुछ यही दशा हुई। उसको 'प्राकृत' की संज्ञा मिली। पाणिनि-शिक्षा में कहा गया है -- \Vilson Philological Lectures on Marathi, H. N. Apte, Poona 1922 पृ० ५.पर अवतरित ।