- उदू की उत्पत्ति इसका परिणाम यह हुआ कि लोग कुछ सावधान हुए। सोच-र -समझकर फारसी का मरज गुह्य रूप से उदू में भरने लगे। मीर तकी मीर पहले तो तनते रहे और हिंदीपन की दाद भी देते रहे; अत में उन्हें भी लखनऊ की मजलिस में शरीक होना पड़ा। एक दिन था मीर साहब साफ साफ फटकार कर हिंदी . जवाँ की दाद दे सकते थे और कह सकते थे- क्या जानूं लोग कहते हैं किसको सरूरे-कल्प, श्राया नहीं है ल फ्ज़ यह हिंदी ज़बाँ के बीच । किंतु यह रंग अधिक दिन तक न जसा। उन्हें भी अपने ख्याल को फारसियत का जामा पहनाना पड़ा और तब फिर मीर ही मीर हो पाए। फरमाते और कुढ़कर फरमाते हैं- तबीयत से जो फारसी के मैंने हिंदी शेर कहे, सारे तुल्क बच्चे ज़ालिम अब पढ़ते हैं ईरान के बीच । एक दूसरे सजन मुरादशाह ( मृ० १८३५ ई.) कितनी सच्ची और खरी बात कहते हैं- नहीं हिंदी स खुन में नु.क्स मुमकिन, लताकत है बहुत सी इसमें लेकिन । न शायर हिंद के यों फ़िलहकीकत, गए ले फुर्स के मज़, प सबकत ।। झिकोड़ा कारनी के उस्त ख्वा को, किया पुरमग्न तव हिंदी जयों को । फसाहन फारमी ने जब निकाली, लताकत शेर में हिंदी के डाली ।। सारांश यह कि फारसी का दखल और भाषा का बहिष्कार हो जाने पर 'हिंदी जयाँ यारों में मकबूल हुई।