पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१३५

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भाषा का प्रश्न लगाने के पहले मौलाना हक की एक खोज की दाद दीजिए और उसे सदा के लिये कंठ कर लीजिए। बड़े मौके पर काम आएगी। उनका कहना है- देहली कालेज में "अरबी-फारसी के तमाम मुसलमीन हिंदी पढ़ते थे। इसमें मसलहत यह थी कि इन जवानों के तुल्यः अमूमन बाला काबलियत के होते थे और जब वह देहात में जाते थे तो गाँववालों से मामिला करने में यह जयान कारामद सावित होती थी तथा "अरवी-फारसी के तुल्मः 'वैतालपचीसी', 'सिंघासनवतीसी' और प्रेमसागर' पढ़ते थे। यह इस ख्याल से कि अगर कोई तालिवइल्म फौजी मुंशीगीरी की खिदमत कबूल करे तो उसे अजाम दे सके।" सारांश यह कि मरहूम देहली कालेज (मृ० १८७७ ई.) में वही प्रेमसागर अरबी-फारसी के छात्र पढ़ते थे जो आज लोगों को काट खाता है और प्रेम की जगह द्वेप का बीज समझा जाता है। इतना ही नहीं, फौज और देहात के लिये हिंदी का पढ़नां और उसी हिंदी का पढ़ना, जो प्रेमसागर की हिंदी या आधुनिक हिंदी कही जाती है, लाजिमी था। क्यों ? इसी लिये न कि वस्तुतः वही देशभाषा थी-वही राष्ट्र-भाषा थी। वही हिंदु- स्तानी थी न कि उर्दू या मजलिसी भाषा जो देहली के आसपास -'उदू' ( वही) जनवरी सन् १६३३ ई०, पृ० ५३ ! जनवरी सन् १६३३ ई०, '.०५८ । 5)