पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१३७

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भाषा का प्रश्श रहने से उनकी जवान बिगड़ती थी। चाँदनी पड़ने से माशूक का बदन मैला हो या न हो किंतु बाहरी जवान कान में पड़ते. से इन लोगों का बदन ( मुँह ) जरूर मैला हो जाता था। तभी तो इस तरह जनता क्या, भद्र पुरुषों से किनारा कसते थे और कमरे में बैठे-बिठाए अरबी-फारसी के बल पर जबान का दंगल मारते थे और शागिर्दो की वाहवाही तथा शरीफों की खूब खूब में मग्न होकर हिंदी जवान का खून कर जाते थे और इमाम नासिख, इमाम नासिख के रोव में जवान के गाजी वन जाते थे। हमें इस बात को याद रखना होगा कि यहीं नासिख ( मृ० १८३८ ई० ) उर्दू के पुरोहित और प्राचार्य हैं। इन्हीं के कारण उर्दू का नाम चला और देखते ही देखते अन्य सब नामों को दवा लिया। आज 'उर्दू' के अतिरिक्त और कोई नाम सुनाई ही नहीं पड़ता। उर्दू के उपासक इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि 'उर्दू वास्तव लखनऊ की कैद में है। उसे हिंदी, हिंदुस्तानी कहना तो दूर रहा वह सचमुच 'देहलवी' भी नहीं है। आज देहली भी जवान के लिहाज से लखनऊ के वश में है। उसका सोता सूख सा गया है और वह लखनऊ की नहर से (जो फारसी से निकाली गई है ) जीवन प्राप्त कर रही है। अरे, यह वह समय है जब काल-चक्र की प्रेरणा से सभी अपनी जड़ सींच रहे हैं पर इस समय भी हिंद' ही एक ऐसा अभागा जड़ देश है जो अरबी- फारसी के लिये अपने ही हाथ से अपनी जड़ खोद रहा है हाँ, तो इमाम नासिख लखनवी थे। देहली का उन्होंने शायद मुँह भी नहीं देखा था। दिल्लीवालों के लिये वे भी ..