पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१४

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७ 3 राष्ट्रभाषा की परंपरा का प्रयत्न क्रिया हो। जो हो, इतना तो निर्विवाद है कि उन्होंने जीती-जागती आपा का व्याकरण लिखा है, कुछ मरी या पिंगल की भाषा का नहीं। पाणिनि ने 'भाषा' को इस ढंग से ढाल दिया कि वह बराबर उसी ढर्रे पर चलती रही, कभी स्थिर या निर्जीव न हुई। पाली तथा प्राकृतों के प्रभुत्व में आ जाने पर भी वह निष्प्राण न हुई बल्कि उनसे शक्ति ग्रहण करती रही और फिर उनकी जगह जन-सामान्य में चल निकली। भारत में इसलास के जम जाने के पहले वही संपूर्ण भारत की शिष्ट राष्ट्रभाषा थी। उसके भी- दो रूप थे। काव्यगत रूप को लेकर संस्कृत को भले ही गईत भापा कह लें, पर उसके कथा-पुराण-रूप को देखकर आपको मानना पड़ेगा कि वह चलित और व्यवहार की भाषा है। जनता उसके भाव को समझती है और उसके कथा-प्रसंगों को बड़े चाव से सुनती है। वाल्मीकि की मानुपी भाषा ब्राह्मी या ब्रह्मर्षि देश की लपित या बोलचाल की भाषा थी। धीरे धीरे उसका प्रसार अन्यत्र भी हो गया था। उसका शिष्ट रूप तो अनुशासित होने के कारण एकरूप हो गया था पर उसका प्राकृत रूप सदैव परिवर्तन- शील था। इसी परिवर्तनशीलता के कारण एक ही भाषा के अनेक देशगत रूप हो गए थे। बैंयाकरणों ने सुभीते के लिये उन्हें 'प्राकृत' की उपाधि दी और व्याकरण लिखते समय इस शत का बराबर ध्यान रखा कि संस्कृतज्ञ उनको आसानी से समझ से और समय पड़ने पर संस्कृत को प्राकृत के रूप में ढाल दें।