पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१४०

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१३५ उदू की उत्पत्ति ' में नहीं रखा, बल्कि साफ साफ कह दिया कि अब यह तुम्हारी हिंदी नहीं, हमारी 'डू' हैं। इस उर्दू में दाखिल होने के लिये हिंदीपन को छोड़ना ही पड़ेगा। विना अरबी-फारसी की शरण गाए, अब आपका काम चलने से रहा। यह उर्दू-ए-.. मुल्ला नहीं है कि बोलचाल के हिंदी शब्द भी लिख मारो । यह उ है, और नासिख की उर्दू है। इसमें रेखता या घपला का काम नहीं। शुद्ध फारसी का बोलबाला है। भाषा का नाम नहीं। सारांश यह कि हमीं उसके मिटानेवाले (नासिख ) हैं। कहने की जरूरत नहीं कि देहली भी आज इसी नासिखी उर्दू के मातहत है, यद्यपि कभी कभी कुछ तन जाती है और अपनी जवान के जोम में कुछ हिंदीपन दिखा जाती है। पर अब उस बूढ़ी को अब तो लखनऊ की इस नाजनी का राज्य है। चारों और इसी की नौवत बज रही है। गजव तो यह है कि मौलाना हक इसकी दाद नहीं देते बल्कि उलटे कह बैठते हैं- " शबान जदीद हिंदी की तरह किसी ने बनाई नहीं, बह तो खुद बनुद बन गई और उन कुदरती हालात ने बनाई जिन पर किसी को कुदरत न थी। इसमें हिंदू और मुसलमान दानां शरीक थे और अगर हिंदुओं की इसमें शिरकत न होती तो यह बदही में नहीं आ सकती थी। ई जवान' से यदि मौलाना हक का मतलब उर्दू की जवान, रेखता या मिली-जुली मिश्र भापा यानी हिंदी से है तो पृछता कौन है। १३ वही) अपरैल सन् १९३७, ३० ३८४ !