पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा का प्रश्न १४४ सियत की ओर टकटकी लगाए देख रही है और उसकी जूठन को महाप्रसाद' समझती है। भला फारसवाले आपको क्या कहते होंगे जो अरबियत और तुरकियत से बाल बाल बचकर शुद्ध फारसियत को अपना रहे हैं। संक्षेप में पक्के फारसी बन रहे हैं। पर यहाँ तो अभी वही उर्दू का पुराना राग अलापा जा रहा है और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रचलित शब्द १-मौलाना अब्दुल हक ने कहा है---"तुकों ने अपनी जवान से गैर जवानों के लफ़्ज़ निकालना शुरू कर दिए हैं। ईरान में पहले भी एक कोशिश हुई लेकिन नाकाम रही। अब वह फिर तुकों की तरह गैर जवानों के अल्फाज़ निकाल देने पर आमादः नजर आते हैं।" उर्दू ( त्रैमासिक पत्रिका ) सन् १९३७: ई०, पृ० ३७५ ।। स्पष्ट है कि उनकी इस उग्र चेष्टा का कारण राष्ट्रप्रेम है। राष्ट -प्रेमी अपनी जबान पर से गुलामी की मुहर निकाल- फेकने पर तुले हैं। उनकी जबान पर अब गुलामी की लगाम न रहेगी। पर हिंदी के राष्ट-प्रेमी उसी गुलामी की लगाम के लिये मुंह बाए खड़े हैं। वह केवल इसलिये कि यहाँ हिंदू लोग भी रहते हैं और एक ऐसी भाषा बोलते हैं जो हिंदी के नाम से रव्यात है, जिसमें बहुत कुछ: हिंदीपन बाकी रह गया है। उसका एकमात्र अपराध कदाचित् यही है : कि वे हिंदू ही रह गए है. मुसलिम नहीं हुए। यदि वे भी मुसलिम हो गए होते तो आज हिंद में भी हिंदी का नारा बलंद होता न कि अरबी-फारसीं का वेतुका राग अलापा जाता और उनपर तरह तरह के लांछन लगाए जाते।