पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गासी द लासी और हिंदी ने हिंदी-उदू का प्रश्न हिंदू-मुसलिम संप्रदाय का दंगल हो गया है और आज तो वह वर्ग-विशेष के सामने जीवन-मरण के रूप में दिखाई दे रहा है। बद अहमदखां पर दिल्ली के परामत्र का जो प्रभाव पड़ा जससे वे प्रथम नो विचलित-से हो गए, पर शीघ्र ही सचेत हो जाग उठे और फारसी का मोह छोड़ उर्दू की उन्नति में लीन हुए। उदू की तरको के लिये उन्होंने सन् १८६३ ई० में जो माइंटफिक सोसाइटी खोली थी वह किस ढंग पर काम कर रही थी, उसका कुछ पता इसी से चल जाता है कि उसके एक प्रभाव- शाली गौरांग प्रभु की दृष्टि में हिंदी के टवर्ग भी राड़ रहे थे। वे उन्हें उद से निकाल बाहर करना चाहते थे । उचर साइंटशिक लामाइटी उर्दू के उद्धार में लगी थी इधर संबद अहमदला जज होकर सन् १८६७ ई० में बनारस पहुँच गाए और 'बनाक्यूलर सोसाइटी' के लिये प्रयत्नशील हुए । कहना न होगा कि सैयद अहमद की द्रष्टि में उर्दू ही एकमात्र बर्नाक्यूलर श्री, गँवारी हिंदी से उसका कुछ मतलब न था। नवद अहमदन्त्रों का भेद बाबू शिवप्रसाद से छिप न सका। निदान विवश हो बाबू साहब को हिंदी की रक्षा के लिये तत्पर होना पड़ा। पाठकों की जानकारी के लिये यहाँ हम इतना और निवेदन कर देना चाहते हैं कि इसके कुछ पहले ही- देवानंद सरस्वती पर किया गया है। ग्राशा है, हम सैयद अहमदखाँ रे, म स्वरूप को समझने की पूरी चेष्टा करेंगे और उनके अध्ययन में मृत लाभ उठान, हिंदी-हित में लीन होंगे।