पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१६७

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भाषा का प्रश्न १६२ निकाल फेंकेगा। सारांश यह कि श्री लल्लूजी लाल की तरह स्वामी दयानद सरस्वती पर भी व्यर्थ ही यह लांछन लगाया.. गया कि उन्होंने फारसी-अरबी शब्दों का बहिष्कार किया। इस लांछन अथवा अभियोग से यारों का जो हित हुआ उसके निदर्शन की जरूरत नहीं। यहाँ तो इतना दिखा देना काफी है कि स्वामीजी ने फारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग उचित मात्रा और उचित रूप में बिना किसी संकोच के स्वभावतः किया है। इतना ही नहीं, कुछ फारसी और उर्दू के पठन-पाठन का भी विधान किया है। उन्हें देश-निकाला नहीं दिया। परंतु जो लोग नासिख (मृ० सं० १८९५ वि०) के कलाम को राष्ट्रभाषा की कसौटी ठहराते और आँख-कान' तक को मतरूक या सलीस उदू के बाहर की गँवारी चीज समझते हैं उनके लिये तो स्वामी दयानद सचमुच कृतांत हैं। उनकी जबान को जरूर देश- निकाला दे दिया । लाख करें, अब वह जवान हमारी जवान नहीं पकड़ सकती। स्वयं उर्दू वालों ने उनकी जबान पर लगाम लगा दी है और उनकी भूलों पर पछता रहे हैं। हाँ, तो स्वामी दयानंद सरस्वती की जन्म-भाषा हिंदी न थी। हिंदी का उन्होंने अध्ययन भी नहीं किया था। भाषा के साथ ही साथ जो राष्ट्र-भाषा का परिचय हो गया था उसी के आधार पर स्वामीजी ने हिंदी-भाषा में लिखना आरंभ जन्म- जनाब नासिख ने यह फरमान निकाल दिया था कि "आँख' की जगह 'चश्म' और 'कान' की जगह गोश' बाँधो ।