पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१६९

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भाषा का प्रश्न १६४ . की भाषा पसंद न आती थी। किसी के लिये लिखते हैं- "यह भाषा भी अच्छी नहीं बनाता किंतु घास ही काटता है। तो किसी में दोष निकालते हैं—'अपनी ग्रामीण भाषा लिख देता है।" साथ ही उन मुशियों को भी सावधान कर देते हैं जो हिंदी को फारसी बनाकर उसे बिलकुल किताबी चीज बना देते हैं। तभी तो श्री. ज्वालादत्त लिखते हैं- "भाषा बनाने के लिये जो गोदगाद शिवदयालु मुंशी से करा रहे हैं यह तनिक शोच- विचार के होना चाहिए। इस भाषा बनाने में बहुत जगह कठिन पड़ती और आगे-पीछे बहुत ख्याल रखने पड़ता। इस काम में जो आपके पास दो बरस न रहा हो और जिसने आपका ठीक सिद्धांत न जाना हो उससे इस भाषा का बनवाना इस काम का ढंग विंगड़वाना है।... फारसी शब्दों के बचाने के लिये गमारू' शब्द भी मिल जाय तो गमारू शब्द धर देता हूँ। जहाँ तक बर्च सकते वहाँ तक बचा भी देता हूँ।" ... उक्त अवतरणों के आधार पर आसानी से कहा जा सकता है कि भाषा के संबंध में स्वामीजी का निजी सिद्धांत था फारसी और 'गमारू' से बचकर प्रचलित राष्ट्रभाषा में भाष्य करना । १--शताब्दी संस्करण, प्रथम भाग, भूमिका पृ० १८ । २--ऋषि दयानंद का पत्र-व्यवहार प्रथम भांग, गुरुकुल काँगड़ी, ०४१६। -इसी 'गमारू शब्द' को लक्ष्य करके स्वामीजी ने लिखा था, अपनी ग्रामीण भाषा लिख देता हैं।" : स्वामीजी 'फसीह ज़बान' या 'ग्रामीण भाषा' के कायल न थे बल्कि प्रचलित भाषा के भक्त थे।