पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१७०

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स्वामी दयान'द और उर्दू स्वामीजी के उक्त सिद्धांत को सामने रखकर उनकी भाषा पर विचार कीजिए। आपको स्पष्ट अवगत होगा कि स्वामीजी ने फारसी के किताबी शब्दों और फारसियत को अपनाने की चित्त नहीं की है, बल्कि मुंशियों को उनसे सावधान भी कर दिया है। साथ ही फारसी के उन शब्दों को हाथ से जाने भी नहीं दिया है जो जनता या लोकभाषा के शब्द हो गए हैं। यहाँ बदि हम यह दिखलाने की चेष्टा करें तो उचित होगा, कि स्वामी जी ने निजी, अपने हाथ के पत्रों में कहाँ तक फारसी के शब्दों को जगह दी है और इस बात का जरा भी ख्याल नहीं किया है कि वे शब्द मुसलमानी या आर्यो की गुलामी के वक्त के हैं। स्वामीजी ने 'हिंदू'१ शब्द को त्याग दिया। इस- लिये नहीं कि वह फारसी या इस्लामी शब्द था, बल्कि इसलिये कि उसमें धृणा और अपमान था द्वेप का विधान था और 'श्राय को इसी लिये अपनाया या चालू किया कि वह वस्तुतः आयत्व का द्योतक और मंगल का विधायक श्रा! स्वामीजी से जब आर्यभाषा के प्रचार के लिये अनुरोध किया गया तब उन्होंने आर्यसमाजो को लिखा- 1--हिंदू शब्द के सांकेतिका) हैं. 'काला, लुटेरा और गुलाम ।' लिए मारे दयानंद के पत्र और विज्ञापन दू० भा०, पृ० ७१--पंजाब ब्राईटिंग बक्से, लाहार, सन् १६१६ ई० । - और विज्ञान चतुर्थ भाग. पृ०:३६, विद्याप्रकाश प्रेस लाहोर, मद १६२७ ई०