पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१८

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११ राष्ट्रभाषा की परंपरा सांप्रदायिक आग्रह के कारण कुछ मागधी भी हो गई थी। बौद्धकाल की वही राजभाषा भी थी और चलित राष्ट्रभाषा भी। पाली के प्रभुत्व में आ जाने का परिणाम यह हुआ कि द्विजी भाषा से लोग कुछ बिरक्त से हो चले और प्राकृतों को विशेष महत्व देने लगे ! पाणिनि के परिश्रम को सफल करने के लिये द्विजों ने उसे और भी द्विजी कर दिया । संस्कृत तथा प्राकृत का भेद बढ़ता रहा। उसको सिटाने की कभी व्यर्थ चिंता न हुई। प्राकृतों का लेखा लिया गया और संस्कृत के आधार पर उनका व्याकरण भी रचा गया । उधर बौद्धों ने देख लिया कि शाक्यमुनि ने द्विजी भाषा का निषेध किया था जनता के कल्याण अथवा लोक-संगल के लिये, कुछ द्विज-द्वेप या प्राकृत-प्रेम के लिये नहीं। अव द्विजों को परास्त करने के लिये, तर्क द्वारा सुझाकर अपने संघ में लाने के लिये तथा शास्त्रार्थ एवं शास्त्रचिंतन के लिये तो अवश्य ही द्विजी भाषा का प्रयोग करना चाहिए । संस्कृत के अतिरिक्त किसी अन्य मानुपी भाषा में इतनी क्षमता कहाँ कि वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म बातों का निदर्शन करे और बाल की खाल निकाल कर तथ्य को सबके सामने साफ रख दे। निदान उन्हें सी संस्कृत का स्वागत करना पड़ा। उनके योग से संस्कृत पनप उठी और 'गाथा' के रूप में उसकी एक अलग शाखा निकल आई। हीनयानियों ने तो पाली का पिंड पकड़ना अपना धर्म समभा पर महायानियां ने अपनी महत्ता के कारण उसकी उपेक्षा की और लोक-मंगल के लिये संस्कृत को उभार दिया। संस्कृत अपनी उदारता एवं