पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१८०

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स्वामी दयानद और उर्दू परमार्थ और स्वदेशीशनि के लिये स्वामीजी अनिवार्य ससनाले थे कि प्रच्छन्न फारसी यानी उर्दू की जगह आर्य यानी 'आर्यावर्त ( हिंदुस्तान ) की भाषा हिंदी का प्रचलन हो । याद रहे, स्वामीजी की आर्यभाषा या हिंदी का अर्थ है हमारी बह राष्ट्र मापा जिसमें "मिले संस्कृत पारस्यौ, पै अति प्रगट जु होय ५१ .. यही कारण है कि उनके धार्मिक और पवित्र ग्रंथों में भी फारसी-अरबों के शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनसे कभी किसी प्रकार का परहेज नहीं किया गया है। प्रसंग के अनुसार स्वामीजी ने किस तरह फारसी-परवी के कितने शब्दों का प्रयोग किया है, इसको अच्छी तरह जानने के लिये उनके ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। फिर भी पाठकों की जान- कारी के लिये हम यहाँ कुछ अवतरण देते हैं और यह जानना चाहते हैं कि स्वामीजी उन्हें किस रूप में रखते कि उर्दू पर नजला गिराने और फारसी-भरबी शब्दों के देश-निकाले के अभियोग से बच जाते और राष्ट्रमापा के पोषक माने जाते । स्वामीजी संस्कृत के पंडित और फारसी तथा उर्दू से विलकुल अनमिन थे। वे स्वयं कहते हैं--- "जो कुरान अर्बी भाषा में है उस पर मौलवियों ले उर्दू में अर्थ लिखा है। उस अर्थ का देवनागरी अक्षर और आर्य- भामांतर करा के पश्चात अर्थी के बड़े बड़े विद्वानों से शुद्ध --काव्यनिर्णय, पिरवारी दासः । २-तत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका ४ पृ० ७०३ ।