पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१८२

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, स्वामी दयान'द और उर्दू . रुपयों को छीन कर लिए जाते हैं। सिपाही धीरे धीरे चल के किसी भल्ले आदमी को पकड़ लाए कि तू ही चोर है। उसने उनसे कहा कि मैं फलाने साहूकार का नौकर हूँ चलो पूछ लो।" चलो चलें. हम भी नामधारी राष्ट्रप्रेमियों से पूछ लें कि स्वामीजी की यह भाषा राष्ट्रभाषा या हिंदुस्तानी है अथवा नहीं। यदि है तो आप स्वामीजी पर यह अभियोग क्यो चलाते हैं कि उन्होंने फारसी-परवी के शब्दों को देश-निकाला दे दिया ? यदि नहीं तो कृपा कर उस 'हिंदुस्तानी' का नमूना पेश कर दीजिए. जिसे आप सचमुच राष्ट्रभाषा समझते हैं। यदि आप सचसुच इसी उर्दू को हिंदुस्तानी या मुल्की जवान समझते हैं जो सरकार में या कचहरियों में बरती जाती है और जो मुल्की जवान की. उपाधि से दफ्तरों में दाखिल हुई है तो हमें आपसे स्पष्ट कह देना है कि यह हिंदी नहीं, हिंदुस्तानी नहीं, उर्दू यानी प्रच्छन्न, फारसी है। वह राजभाषा भले ही बनी रहे, पर हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। हमारी राष्ट्रभाषा सदा से हिंदी रही है और प्राजसी वही है। हिंदी ने सदा से फारसी-अस्त्री के प्रकट शब्दों को अपनाया है और स्वामीजी ने अपनी आर्य-भाषा में उनका विधान भी किया है। आँख खुले अधों को सुझा देना हमारा काम नहीं ; वह तो हक की बरकत है। देखनेवाले देखें और सुननेवाले सुने । १- सन् १८३८ ई० में फारसी की जगह सरकारी दफ्तरों तो.