पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१९३

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मापाका अन खाकर गय घोड़ी दरिया में डूब गई ।..... मैं सौदाई और जनूनी हो गया और फकीर बनकर यही कहता फिरता यां-इन नैनों का यही बिसेख, यह भी देखा वह भी देख। ---(वही ० २२० । बस, अब और देखने की इच्छा नहीं होती। पाठक स्वय.. देखें और कहें कि माजरा क्या है। किस तरह मौर अमन की 'उदू की हिंदुस्तानी' हिंदिचत के साथ रहती है और उर्दू-ए-मुअल्ला के ठेठ तथा संस्कृत शब्दों को सटे चलती है भूलकर भी उन्हें 'मतरूक' या हराम नहीं समझती, शब्दों की तरह ही हिंदी मावों. विचारों तथा वस्तुओं का भी अपनाती और अपनी हिंदियत का परिचय देती है। मीर अमन ऐसा क्यों न करें ? आखिर वह भी तो हिंद के सपूत हैं और उनका उटू--मुअल्ला भी तो हिंदही में बसा है। फिर वे अरबी-फारसी का वृथा व्यवहार कर उसकी जबान को अजनवी क्यों बनाएँ और प्रमादवश अपने अहंकार की तुष्टि के लिये इसे नबी या इसलाम की सेवा क्यों समझ ? भूलें नहीं, यह देश की वाणी अथवा समूचे राष्ट्र की हिंदुस्तानी नहीं बल्कि 'उदू यानी देहली के शाही दरबार की हिंदुस्तानी है, उस शाही स्थान की जो सदा से मुसलिम शासन का केंद्र रहा है और आज भी उर्दू जवान का घर समझा जाता है। देश की हिंदुस्तानी का स्वरूप मीर अमन की दृष्टि में क्या होता, इसे आप स्वयं समझ सकते हैं और यदि चाहें तो सच मुच आज उसे अपना भी सकते हैं। बस, केवल समझ और साहस की जरूरत है। .. "साहसे श्रीः प्रतिवसत्ति ।"