पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/२१

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भाषा का प्रश्न " का रहस्य क्या है ! .. 'प्राकृतम्' का अर्थ है प्राकृत मात्र की भाषा नहीं प्रत्युत आर्यो के प्राकृत जनों की वाणी, प्राकृत श्रार्यों की वह भाषा जो देशकाल के प्रभाव से विकृत हो गई थी और स्थानीय अनार्यों के संपर्क में आ जाने से कुछ रूप, काकु तथा उच्चारण में भी बदल गई थी। संस्कृत के प्रसंग में हम पहले ही देख चुके हैं कि उसके 'मानुषी' तथा 'द्विजी' दो रूप थे। द्विजी संस्कृत वाणी ने आगे 'चलकर शिष्ट संस्कृत का रूप धारण कर लिया और मानुषी संस्कृत ने मूल निवासियों से मिलकर 'प्राकृत' की पदवी प्राप्त कर ली। प्राकृतों के प्रभुत्व में आ जाने से प्राकृत भाषाओं को महत्त्व मिला और काव्य-भाषा में उनकी भी गणना हुई। प्राकृत काव्यभाषा तो हो गई पर प्राकृत कवि न हो सके। उनकी भाषा पंडितों के हाथ में पड़ी और सस्कृत प्राकृत के रूप में पोथियों में दीख पड़ने लगी। आज हमारे सामने यही व्यवस्थित प्राकृत है। हम इसे प्राकृतों की मूलवाणी नहीं कह सकते। यह तो शिष्ट प्राकृत है। अवश्य ही इसकी प्रकृति संस्कृत है- अधिकांश शिष्ट संस्कृत । अतएव वैयाकरणों का यह दावा कि संस्कृत प्रकृति तथा प्राकृत विकृति है सर्वथा साधु है। उनको फटकारने के पहले एक बार अपने दावे को भी अच्छी तरह फटक लेना चाहिए। उनको : परास्त करने के लिये संस्कृत तथा प्राकृत का धात्वर्थ पर्याप्त नहीं है। वानरवर हनूमान् ने 'मानुषी वाक् को भी संस्कृता' कहा है, 'प्राकृता नहीं। अस्तु, इससे सिद्ध होता है कि उस समय मानुषी वाक् को भी संस्कृत ही कहते थे, प्राकृत नहीं !