पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/२२

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राष्ट्रभाषा की परंपरा वैयाकरणों ने तो संस्कृत तथा प्राकृत के पारस्परिक संबंध को भली भाँति निभा दिया, किंतु सांप्रदायिकों को उससे संतोष न हुआ। बौद्धों ने मागधी तथा जैनों ने अर्द्धमागधी को मूल- भापा अथवा प्रकृति कहा। प्राकृत तथा संस्कृत के धात्वर्थ में जो प्रकृति एवं संस्कृति का विधान है उससे उन्हें सहायता मिली और संस्कृत का पक्ष निर्वल हो गया। बहुतों ने प्राकृत को प्रकृति मान लिया और संस्कृत को निपट वनावटी. या गढ़त भाषा कह दिया। परंतु, जैसा कि हम देख चुके हैं, उनके इस विचार में कुछ लार नहीं है। स्वतः संस्कृत ब्राह्मी या देववाणी है। इसी देववाणी का मानुषी रूप प्राकृत है जिसके न जाने कितने देशगत रूप हो गए हैं। अतः हम नमिसाधु (१०६९ ई०) के इस निष्कर्ष से कभी सहमत नहीं हो सकते कि "शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि।" (श्री रुद्रट-प्रणीत काव्यालंकार, म० २, पद्य १२ की टीका) विचार करने की बात है कि आचार्य हेमचंद्र (१०८८ से ११७२ ई.) ने नमिसाधु की देखा-देखी अपने काव्यानुशासन के मंगलाचरण में तो 'जैनी वाणी' को 'सर्वथापा परिणता' कह दिया है पर अपने 'हमव्याकरण' में स्पष्ट संस्कृत को प्रकृति तथा प्राकृत को विकृति माना है। उनकी उक्ति है :- "प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत्त आगतं वा प्राकृतम् ।" अस्तु, यह निर्विवाद है कि संस्कृत तथा प्राकृत का विकास एक ही मूलभाषा अर्थात् ब्राह्मी से हुआ है। यदि प्राकृत तथा संस्कृत की प्रकृति और संस्कृति को सामने रख कर प्राकृत प्रश्न