राष्ट्रभाषा की परंपरा शौरसेनी को ठहराया है और शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत को मान लिया है। सचमुच संस्कृत ही प्राकृतों की परंपरागत प्रकृति है। उसी के मानुषी रूप से उनका विकास हुआ है। आचार्य दंडी (६०० ई० के लगभग) ने अपने काव्यादर्श में इस उलझन को कुछ सुलझा दिया है। उनका कथन है :--- "महाराष्ट्रोद्भवां भाषां प्रकृष्टप्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरतानां सेतुबन्धादि यन्मयः ।।" (म० परिच्छेद, पद्य ३४) आचार्य ने व्यक्त कर दिया है कि महाराष्ट्री की प्रकृष्टता का कारण उसका काव्य है। जिस प्राकृत में सेतुबंध जैसे सूक्ति- सागर मौजूद हों उसे उत्कृष्ट क्यों न कहा जाय । काव्य में महाराष्ट्री के प्रकर्ष का कारण था उसका साहित्य और उसके साहित्य के उत्कर्ष के विधाता थे 'हालसातवाह- नादिनामा शकप्रवर्तकः शालिवाहनः । येन च गाथासप्तशती संकलिता। (साहित्यदर्पण, निर्णयसागर १९२२ ई०, भूमिका पृ०५८) शालिवाहन प्राकृत के परम प्रेमी थे। उनके शासन में सभी प्राकृतभापी हो गए थे। प्राकृत की प्रधानता का परिणाम वह हुआ कि स्वतः शालिवाहन संस्कृत में कच्चे रह गए। कहा जाता है कि एक दिन जल-क्रीड़ा के समय किसी रमणी ने जल के छीटों से तंग आकर उनसे प्रार्थना की थी कि 'मोदकं देहि ।' प्राकृत-प्रेमी शालिवाहन को 'मा+उदक' का भान न हो सका और उन्होंने चट उसके सामने लड्डू पेश कर दिया। रमणियाँ