पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/३०

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राष्ट्रभापा की परंपरा कह सकते . प्रकृत प्रवादों के आधार पर हम निश्चय रूप से हैं कि शकादि जातियों के भारत में बस जाने तथा शुद्ध भारतीय हो जाते का परिणाम यह हुआ कि संस्कृत ने नवजीवन धारण कर लिया और पैशाची देश में दूर दूर तक फैल गई। वह देश- भाषा, जातिभापा और किसी किसी जनपद की राजभाषा भी वन गई। कुतल और भोज प्रभृति जनपदों में उसका प्रसार शकादिकों के साथ हुआ। उन्हीं के कारण वह पांड्य में भी पहुँच गई। पैशाची के परीक्षण में सबसे विलक्षण बात यह दिखाई देती है कि वैयाकरणों तथा काव्याचार्यों ने उसकी बराबर चिता की है, किंतु नाटकों में उसे स्थान नहीं मिला है। नाट्यशास्त्र में भापाओं का उल्लेख इस प्रकार है : "मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यधमागधी । वाहीका दाक्षिणात्या च सप्तभापा प्रकीर्तिता॥" (अ० १३ प० ४६) 'भापा' के अतिरिक्त विभापा' की भी नाट्यशास्त्र में चर्चा है, पर उसमें कहीं पैशाची का विधान नहीं है। साहित्यदर्पण में (६:१६४) पैशाची का विधान कर दिया गया है पर उसका कोई विशेष महत्व नहीं दिखाई देता। उसमें पैशाची की व्याख्या मात्र है। 'पैशाची स्यात्पिशाचवाक्' से संशोध का कोई प्रश्न'. सुलझ नहीं सकता। निदान कहना पड़ता है कि पैशाची के विवेचन में नाटकों से कोई सहायता नहीं मिल सकती। हाँ, नाट्यशास्त्र से कुछ पता अवश्य चल सकता है।