पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/३४

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राष्ट्रभाषा की परंपरा "संस्कृतं प्राकृतं चैवापभ्रशोऽथ पिशाचिकी। मागधी शौरसेनी च पड्भाषाश्च प्रकीर्तिताः॥" (प्राकृतलक्षणम). जो लोग हमारी भाषा-परंपरा से अनभिज्ञ हैं अथवा संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में कालगत भेद मानते हैं उनकी दृष्टि में उक्त भाषा-विभेद में अनेक दोप दिखाई दे सकते हैं। परंतु जिसने देश के भाषा-प्रवाह में भली भाँति अवगाहन कर लिया है उसे इसमें किसी प्रकार का प्रमाद गोचर नहीं होता। प्रत्युत्त भापा के प्रश्न की सारी उलझन इसी से हल हो जाती है और हम किसी प्रकार के दुराग्रह के शिकार भी नहीं होते। ध्यान से देखिए, इसमें किस तथ्य का विधान किया गया है। संस्कृत के प्रसंग में आपने अच्छी तरह देख लिया है कि वह वाल्मीकि के समय में भारत की चलित तथा शिष्ट राष्ट्र-भाषा थी। उसके द्विजी रूप ने किस प्रकार वैयाकरणों की कृपा से काव्यों की संस्कृत का रूप धारण कर लिया, इसके कहने की १-अपभ्रंश का समय प्रायः साहित्य की प्राकृतों के बाद माना. जाता है जो बाङमय के विचार से टोक है। पर इसी के आधार पर यह प्रतिज्ञा प्रतिटित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक देश-भाषा के विकास में प्राकृत के उपरांत अपभ्रंश का समय समान रूप से पाया है। हमारी धारणा तो यह है कि अपभ्रश भी वास्तव में एक प्राकृत विशेष का ही नाम है जिसका प्रसार प्रतीच्यों, कुछ उदीच्यां और मध्यदेशीयों में था। अथवा ग्रियर्सन प्रभृति पंडितों की . अंतरंग भापात्रों में ही अपभ्रंश का विकास हुआ, कुछ बहिरंगों में नहीं।