पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/३८

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राष्ट्रभाषा की परंपरा संकेत कुछ अस्थिर सा है। : सामान्यतः उसके भीतर दृश्य तथा श्रव्य दोनों ही आ जाते हैं, पर विचार करने से विदित होता है कि यहाँ पर काध्य का अर्थ केवल दृश्य काव्य ही है। कारण यह है कि 'आमीरादिगिरः' का विधान उसी में खप सकता है। उाली में भिन्न भिन्न विभाषाओं की भिन्न भिन्न जातियों में व्यवस्था की गई है। भव्य काव्य में कहीं इस तरह का संकेत नहीं मिलता। यही कारण है कि हम प्राचार्य दंडी की 'आभीरादि- गिरः' को नाट्यशास्त्र की 'आमीरोक्ति की प्रतिध्वनि समझते हैं और अपभ्रंश के साधु समीक्षण में इसे संदिग्ध पाते हैं। 'आमीरादिगिरः' के अतिरिक्त यह भी याद रहे कि आचार्य दंडी ने अपभ्रंश को वाङ सय का, अग भी माना है उनका स्पष्ट निर्देश है : "तदेतद्वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा ।. अपभ्रशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ।।" (काव्यादर्श१९३२) अतः अपभ्रंश के अन्वेषण में 'आभीरादिगिरः' के साथ इस आर्यों की अपभ्रंश को भी प्रमाण मानना चाहिए। सच पूछिए तो इसी आर्यापभ्रंश के कारण अपभ्रंश की गणना पड्भाषाओं में की गई है, कुछ त्रामीरादि के नाते नहीं। है उन्हों श्रामीरों के कारण तत्कालीन प्रष्ट भाषा का नाम आभारी अश्या 'आभारादिगिरः' पड़ गया हो। कुछ भी हो, अपभ्रंश के विवेचन में आभीरों की अवहेलना हो नहीं सकती। उनके इतिहास पर विशेष विचार करने की आवश्यकता है।