पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४०

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राष्ट्रभापा की परंपरा उनके पाठ्य को देशीगत कहा गया है। दूसरी ओर आगंतुकों के नए जल्ये आते, जीतते और यहीं के हो रहते थे। यहाँ के भाव तथा भाषा से प्रभावित हो वे चाव के साथ आगे बढ़ते और भाषा को अपनाकर उसे भ्रष्ट कर देते थे। संभवतः इसी भ्रष्टता के कारण उनके पाध्य को 'विभ्रष्ट' की उपाधि मिली है। अतएव बिभ्रष्ट और देशीगत को हम तद्भव' मानते हैं और उनके विभेद का कारण कुछ और ही समझते हैं। : सारांश : यह कि देशीगत पाठ्य स्वतः प्रकृत जनों का प्राकृत पाच्य है और विभ्रष्ट आगंतुकों का प्राकृत पाध्य । विभ्रष्ट में विदेशीपन अवश्य है। इसी विदेशीपन के कारण अपभ्रंश अन्य प्राकृतों से भिन्न है। भरत के 'समुपाश्रिताः' और दंडी के 'श्रामीरादि- गिरः' प्रभृति पद इसी की साक्षी दे रहे हैं। भरत मुनि ने 'उकारबहुला' अर्थात् गर्भ की अपभ्रंश का विधान कर तो दिया पर नाटककारों ने उसे महत्त्व न दिया। शुद्रक के मृच्छकटिक और कालिदास के विक्रमोर्वशीय में अप- भ्रंश के कुछ प्रयोग हुए तो सही पर उनमें भी उसको उचित स्थान न मिला। अस्तु, नाटकों के आधार पर यदि कोई अप- १-अपभ्रश के विषय में याकोबी, गुणे प्रभृति विद्वानों ने अच्छी खोज की है। इसके लिये भविसवत्तकहा की भूमिका दर्श- नीय है। श्री नुनीतिकुमार चटजी की "बंगाली भाषा की उत्पत्ति तथा विकास' नामक पुस्तक की भूमिका भी इसके लिये उपयोगी है। 'उकारबहुला' के लिये पृ०८८ देखिए।