पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४२

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राष्ट्रभाषा की परंपरा "पश्चिमेनापभ्रंशिनः कवयः। (का० मी० पृ० ५४, ५५) "अपभ्रंशभापाप्रवणः परिचारकवर्ग:।। (वही पृ० ५०) अतएव हम कह सकते हैं कि राजशेखर के समय में अप- अंश पश्चिम की प्रचलित भापा थी और नित्य प्रति के व्यव- हार में आती थी। राजदरवार के परिचारक उसी का प्रयोग करते थे। प्राकृत वैयाकरणों अथवा काव्य के आचार्यों ने भाषाओं के अलग अलग क्षेत्रों का विचार नहीं किया है। किंतु प्राकृतों का जो वर्गीकरण किया है वह देश-दृष्टि पर अवलंबित है। मागधी और शौरसेनी के प्रांतों में किसी को आपत्ति नहीं। प्राकृत महाराष्ट्र की भाषा महाराष्ट्री का परंपरागत नाम है। अतः उसके संबंध में कोई विवाद नहीं। सुगमता के लिये शौरसेनी को मध्या मान लीजिए। मागधी प्राच्या और महाराष्ट्रो दाक्षिणात्या निकल आई। अव प्रतीच्या का पता लगाइए । 'प्रतीच्य में अपभ्रंश का विधान किया गया है। उसके प्रांतों में अपभ्रंश का व्यवहार हुआ है। निद्रान उसकी प्राकृत का नाम प्रतीच्या या अपभ्रंश हुआ। रही पैशाची की अवश्य ही वह उदीच्या सिद्ध हुई। इस प्रकार पंच -यह प्राच्या नात्यशास्त्र की प्राच्या' से सर्वथा भिन्न है। भरतमुनि की प्राच्या 'खड़ीबोली' की मूल प्रकृति है।