पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/४३

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साषा का प्रश्न 3 प्राकृतों का लेखा लग गया और उनका देशगत उचित विभा- जन भी हो गया। नसीव न हुआ। प्राकृतों में प्राच्या (मागधी) को अब्रह्मण्यों, दाक्षिणात्या को सातवाहनों एवं उंदीच्या को शकादिकों ने बढ़ाया और कुछ काल के लिये राजभाषा के रूप में उनकी प्रतिष्टा भी कर दी। पर उनकं प्रयत्न से भी कभी उनको भारत की राष्ट्रभाषा का पद कारण प्रत्यक्ष था। उनमें से प्रत्येक सीमांत भाषा थीं, भारत के हृदय मध्यदेश से दूर की भाषा थीं और अनार्यों के संसर्ग में आ चुकी थीं। पैशाची आततायियों के पंजे में थी तो मागधी भदेसों के मुंह में। महाराष्ट्री द्रविड़ों के संपर्क में रहने तथा आर्यावर्त से अलग एक कोने में होने के कारण सर्वसुलभ नहीं हो सकती थी। निदान उनमें से प्रत्येक का प्रताप उनके शासकों के साथ अस्त हो गया। अपने गुणों के कारण केवल महाराष्ट्री काव्यभाषा बनी रही और नाटकों में शौरसेनी के साथ चलती रही। शौरसेनी ब्रह्मर्षिदेश की भाषा थी। ब्राह्मी की वह औरस नहीं तो सगी संतान थी। संस्कृत की सगी होने के नाते उसका भी व्यापक प्रचार था; ! वैयाकरणों ने उसे ही अन्य प्राकृतों की प्रकृति कहा है। सचमुच वही भारत की चलित राष्ट्रभाषा थी। उसी के सहारे सामान्य जनता भाव-विनिमय किया करती थी। जो लोग उसे बोल नहीं पाते थे वे भी उसे समझ अवश्य लेते थे। तभी तो भरत मुनि ने उसके संबंध में लिखा है-