पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/५२

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राष्ट्रभाषा की परंपरा "अपभ्रंशत्तु चराहालयवनादिषु युज्यते । नाटकादावयभ्र शविन्यासस्यांसहियावः ।।". ( पड़भाषा चं० ११३६) किंतु उनके समकालीन शेपकृष्ण ने अपभ्रंश की इस प्रकार अवहेलना न की। अपभ्रंश का विवेचन तो उन्होंने भी नहीं किया पर उसका कारण कुछ और ही बताया। उनका निवेदन है- "अपभ्रशस्तु या भेदः पठः सेोऽत्र न लक्ष्यते। देशभापादितुल्यत्वान्नाटकादावदर्शनात् । अनत्यन्तोश्योगांचालिप्रसंगमयादपि ॥” (प्राकृत-चंद्रिका) अपभ्रंश को भारत के शिष्ट समुदाय ने कभी विशेष महत्व नहीं दिया। उसका ध्यान बरावर संस्कृत पर बना रहा। राजपूतों के उदय से संस्कृत को और भी प्रोत्साहन मिला और वह बड़े वेग से आगे बढ़ रही थी। उसके प्रकाश में अपभ्रंश का प्रकाशित रहना संभव न था। वह जनसमाज में चल सकती थी। पंडित-मंडली में उसकी प्रतिष्टा न थी। संस्कृत उसे भी ससैट कर आगे बढ़ना ही चाहती थी कि फारसी ने आ दबोचा। संस्कृत घिर गई और अपभ्रंश हिंदी के रूप में आगे बढ़ी। यवनों के में शासन-सूत्र आया कि देशभापाओं को स्वतंत्रता मिली। टेठ हिंदुस्तान के प्राच्य में बॅगला, दक्षिण में १-टेद हिंदुस्तान से तार्य आयवित्त के उस बड़े भूभाग से है, जहाँ के लोग आज भी 'हिंदुस्तानी' कहे जाते हैं और हिंदी को अपनी