पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/५६

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... राष्ट्र-भाषा का निर्णय राष्ट्रपति पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण नायक की भाँति हिंदी की आँख मूंदकर उर्दू का चुंबन किया है और यह समझ लिया है कि उनकी इस दक्षिणी चेष्टा सें हिंदी-उर्दू का १---पंडितजी ने 'भाषा का प्रश्न नामक एक निबंध लिखा है। उसमें जहाँ कहीं हिंदी का नाम आवा है वहाँ उर्दू का भी विधान अवश्य किया गया है। पंडितजी की इस क्रिया से उर्दू को फिर राष्ट्र की ओर से अनुचित मदद मिल गई है। दुनिया जानती है कि विहार तथा मध्यप्रांत में कभी मुसलिम केंद्र या उर्दू के अड्डे न थे। सरकार की और से काफी छानबीन करने के बाद वहाँ से उर्दू हटाई गई थी; परंतु पंडितजी ने फिर वहाँ उसे चालू कर देने का अपनी ओर से विधान कर दिया है। पंडितजी ने इस बात की भरपूर उपेक्षा की है कि राष्ट्रभाषा वास्तव में वहीं हो सकती है जिसकी प्रवृत्ति राष्ट्र तथा प्रांत-मापाओं के साथ हो। जब प्रांत-भावात्रों की प्रवृत्ति हिंदी की प्रवृत्ति के मेल में है तब उन्हें उर्दू के साथ क्रिस प्रकार विटाया जा सकता है ? हम यह नहीं कहते कि उर्दू को न मिले। मिले और खूब मिले। पर इतना याद रहे कि वह . हमारी राष्ट्रभाषा नहीं, वर्ग-विशेष की राज-भाषा है। फारसो तथा अंगरेजी की तरह वह भी हम पर लादी गई है और फारसी की जगह उनी जोर से चालू की गई है।